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दोहा ९७ ]
परमात्मप्रकाशः
जीवानां त्रिभुवनसंस्थितानां मूढा भेदं कुर्वन्ति ।
केवलज्ञानेन ज्ञानिनः स्फुटं सकलमपि एकं मन्यन्ते ॥ ९६ ॥
जीवहं इत्यादि । जीवहं तिहुयणसंठियहं श्वेतकृष्णरक्तादिभिन्नभिन्नवस्त्रैर्वेष्टितानां षोडशवर्णिकानां भिन्नभिन्नसुवर्णानां यथा व्यवहारेण वस्त्रवेष्टनभेदेन भेदः तथा त्रिभुवनसंस्थितानां जीवानां व्यवहारेण भेदं दृष्ट्वा निश्चयनयेनापि मूढा भेउ करंति मूढात्मानो भेदं कुर्वन्ति । केवलणाणि वीतरागसदानन्दैकसुखाविना भूतकेवलज्ञानेन वीतरागस्वसंवेदेन णाणि ज्ञानिनः फुड स्फुटं निश्चितं सयलु वि समस्तमपि जीवराशिं एक्कु मुणति संग्रहनयेन समुदायं प्रत्येकं मन्यन्त इति अभिप्रायः ।। ९६ ।।
अथ केवलज्ञानादिलक्षणेन शुद्धसंग्रहनयेन सर्वे जीवाः समाना इति कथयति - जीवा सयल वि णाण-मय जम्मण-मरण- विमुक्क ।
जीव-पएसहि सयल सम सयल वि सगुणहिँ एक्क ॥ ९७ ॥ जीवाः सकला अपि ज्ञानमया जन्ममरणविमुक्ताः ।
जीवप्रदेशैः सकलाः समाः सकला अपि स्वगुणैरेके ॥ ९७ ॥
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जीवा इत्यादि । जीवा सयल वि णाणमय व्यवहारेण लोकालोकप्रकाशकं निश्चयेन स्वशुद्धात्मग्राहकं यत्केवलज्ञानं तज्ज्ञानं यद्यपि व्यवहारेण केवलज्ञानावरणेन झंपितं तिष्ठति तथापि कर्मके उदयसे शरीर-भेद हैं, परंतु द्रव्यकर सब समान हैं। जैसे सोनेमें वान -भेद है, वैसे ही परके संयोगसे भेद मालूम होता है, तो भी सुवर्णपनेसे सब समान हैं, ऐसा दिखलाते हैं - [ त्रिभुवनसंस्थितानां] तीन भुवनमें रहनेवाले [जीवानां ] जीवोंका [ मूढाः ] मूर्ख ही [ भेदं ] भेद [ कुर्वंति ] करते हैं, और [ज्ञानिनः ] ज्ञानी जीव [ केवलज्ञानेन] केवलज्ञानसे [स्फुटं ] प्रगट [ सकलमपि ] सब जीवोंको [एकं मन्यंते ] समान जानते हैं || भावार्थ - व्यवहारनयकर सोलहवानके सुवर्ण भिन्न भिन्न वस्त्रोंमें लपेटें तो वस्त्रके भेदसे भेद है, परंतु सुवर्णपनेसे भेद नहीं है, उसी प्रकार तीन लोकमें तिष्ठे हुए जीवोंका व्यवहारनयसे शरीरके भेदसे भेद है, परंतु जीवपनेसे भेद नहीं है । देहका भेद देखकर मूढ जीव भेद मानते हैं, और वीतराग स्वसंवेदनज्ञानी जीवपनेसे सब जीवोंको समान मानता है । सभी जीव केवलज्ञानवेलिके कंद सुख-पंक्ति है, कोई कम बढ नहीं है ||९६ ॥
आगे केवलज्ञानादि लक्षणसे शुद्धसंग्रहनयकर सब जीव एक हैं, ऐसा कहते हैं - [ सकला अपि ] सभी [जीवाः] जीव [ ज्ञानमयाः ] ज्ञानमयी हैं, और [ जन्ममरणविमुक्ताः ] जन्ममरणसे मुक्त हैं [ जीवप्रदेशैः ] अपने अपने प्रदेशोंसे [ सकलाः समाः ] सब समान हैं, [अपि ] और [सकलाः ] सब जीव [ स्वगुणैः एके] अपने केवलज्ञानादि गुणोंसे समान हैं । भावार्थव्यवहारसे लोक अलोकका प्रकाशक और निश्चयनयसे निज शुद्धात्मद्रव्यका ग्रहण करनेवाला जो केवलज्ञान वह यद्यपि व्यवहारनयसे केवलज्ञानावरणकर्मसे ढँका हुआ है, तो भी शुद्ध निश्चयनयसे केवलज्ञानावरणका अभाव होनेसे केवलज्ञानस्वभावसे सभी जीव केवलज्ञानमयी हैं । यद्यपि
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