________________
- दोहा ६२ ]
परमात्मप्रकाशः
१८३
I
भणति । अज्जउ आर्यः । किं नामा । सन्ति शान्तिः नामा भणेइ भणति कथयति इति । तथाहि । सम्यक्त्वपूर्वक देवशास्त्रगुरुभक्त्या मुख्यवृत्त्या पुण्यमेव भवति न च मोक्षः । प्रभाकरभट्टः । यदि पुण्यं मुख्यवृत्त्या मोक्षकारणं न भवत्युपादेयं च न भवति तर्हि भरतसगररामपाण्डवादयोऽपि निरन्तरं पञ्चपरमेष्ठिगुणस्मरणदानपूजादिना निर्भरभक्ताः सन्तः किमर्थ पुण्योपार्जनं कुर्युरिति। भगवानाह । यथा कोऽपि रामदेवादिपुरुषविशेषो देशान्तरस्थितसीतादिस्त्रीसमीपागतानां पुरुषाणां तदर्थं संभाषणदानसन्मानादिकं करोति तथा तेऽपि महापुरुषाः वीतरागपरमानन्दैकरूपमोक्षलक्ष्मी सुखसुधारसपिपासिताः सन्तः संसारस्थितिविच्छेदकारणं विषयकषायोत्पन्नदुर्ध्यानविनाशहेतुभूतं च परमेष्ठिसंबन्धिगुणस्मरणदानपूजादिकं कुर्युरिति । अयमत्र भावार्थः । तेषां पञ्चपरमेष्ठिभक्त्यादिपरिणतानां कुटुम्बिनां पलालवदनीहितं पुण्यमास्रवतीति ॥ ६१ ॥ अथ देवशास्त्रमुनीनां योऽसौ निन्दां करोति तस्य पापबन्धो भवतीति कथयति— देवहँ सत्यहँ मुणिवरहँ जो विसु करेइ |
यि पाउ हवेइ तसु जें संसारु भमेह ॥ ६२ ॥
और दिगम्बर साधुओंकी [ भक्त्या ] भक्ति करनेसे [पुण्यं भवति ] मुख्यतासे पुण्य होता है, [ पुनः ] लेकिन [कर्मक्षयः] तत्काल कर्मोंका क्षय [ नैव भवति ] नहीं होता, ऐसा [ आर्यः शांतिः ] शांति नाम आर्य अथवा कपट रहित संत पुरुष [ भणति ] कहते हैं | भावार्थ - सम्यक्त्वपूर्वक जो देव गुरु शास्त्रकी भक्ति करता है, उसके मुख्य तो पुण्य ही होता है, और परम्पराय मोक्ष होता है । जो सम्यक्त्व रहित मिथ्यादृष्टि हैं, उनके भाव-भक्ति तो नहीं है, लौकिक बाहिरी भक्ति होती है, उससे पुण्यका ही बंध है, कर्मका क्षय नहीं है । ऐसा कथन सुनकर श्रीयोगीन्द्रदेवसे प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया - हे प्रभो, जो पुण्य मुख्यतासे मोक्षका कारण नहीं है, तो त्यागने योग्य ही है, ग्रहण योग्य नहीं है । जो ग्रहण योग्य नहीं हैं, तो भरत, सगर, राम, पांडवादिक महान् पुरुषोंने निरंतर पंचपरमेष्ठीके गुणस्मरण क्यों किये ? और दान पूजादि शुभ क्रियाओंसे पूर्ण होकर क्यों पुण्यका उपार्जन किया ? तब श्रीगुरुने उत्तर दिया- कि जैसे परदेशमें स्थित कोई रामादिक पुरुष अपनी प्यारी सीता आदि स्त्रीके पाससे आये हुए किसी मनुष्यसे बातें करता है-उसका सन्मान करता है, और दान करता है, ये सब कारण अपनी प्रियाके हैं, कुछ उसके प्रसादके कारण नहीं है । उसी तरह वे भरत, सगर, राम, पांडवादि महान् पुरुष वीतराग परमानंदरूप मोक्षसे लक्ष्मी सुख अमृत-रसके प्यासे हुए संसारकी स्थितिके छेदनेके लिये विषय कषायकर उत्पन्न हुए आर्त रौद्र खोटे ध्यानोंके नाशका कारण श्रीपंचपरमेष्ठीके गुणोंका स्मरण करते हैं, और दान पूजादिक करते हैं, परंतु उनकी दृष्टि केवल निज परिणतिपर है, परवस्तुपर नहीं है । पंचपरमेष्ठीकी भक्ति आदि शुभ क्रियाको परिणत हुए जो भरत आदिक हैं, उनके बिना चाहे पुण्यप्रकृतिका आस्रव होता है । जैसे किसान की दृष्टि अन्नपर है, तृण भूसादिपर नहीं है । विना चाहा पुण्यका बंध सहजमें ही हो जाता हैं । वह उनको संसारमें नहीं भटका सकता है । वे तो शिवपुरीके ही पात्र हैं ||६१ ||
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org