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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अ० २, दोहा ७५संवित्तिनिश्चयेन संज्ञानेन सम्यग्ज्ञानेन विना मोक्खपउ मोक्षपदं स्वरूपं जीव हे जीव म कासु वि जोइ मा कस्याप्यद्राक्षीः । दृष्टान्तमाह । बहुएं सलिलविरोलियई बहुनापि सलिलेन मथितेन करु करो हस्तः चोप्पडउ ण होइ चिकणः स्निग्धो न भवतीति । अत्र यथा बहुतरमपि सलिले मथितेऽपि हस्तः स्निग्धो न भवति, तथा वीतरागशुद्धात्मानुभूतिलक्षणेन ज्ञानेन विना बहुनापि तपसा मोक्षो न भवतीति तात्पर्यम् ॥ ७४ ॥
अथ निश्चयनयेन यनिजात्मबोधज्ञानबाह्यं ज्ञानं तेन प्रयोजनं नास्तीत्यभिप्रायं मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं प्रतिपादयति
जं णिय-बोहहँ बाहिरउ णाणु वि कज्जु ण तेण ।
दुक्ख कारणु जेण तर जीवहँ होइ खणेण ॥ ७५ ॥
यत् निजबोधाद्वाह्यं ज्ञानमपि कार्यं न तेन ।
दुःखस्य कारणं येन तपः जीवस्य भवति क्षणेन ॥ ७५ ॥
जं इत्यादि । जं यत् णियबोहहँ बाहिरउ दानपूजातपश्चरणादिकं कृखापि दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षावासितचित्तेन रूपलावण्यसौभाग्यबलदेववासुदेवकामदेवेन्द्रादिपदप्राप्तिरूपभाविभोगाशाकरणं यन्निदानबन्धस्तदेव शल्यं तत्प्रभृतिसमस्तमनोरथविकल्पज्वालावलीरहितत्वेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजात्मावबोधो निजबोधः तस्मान्निजबोधाद्वाह्यम् । णाणु विकज्जु ण
भेषसे हमारा कल्याण होगा, इत्यादि अनेक विकल्पोंकी कल्लोलोंसे अपवित्र है, ऐसे [ कस्यापि ] किसी अज्ञानीके [ मोक्षपदं] मोक्ष - पदवी [ जीव ] हे जीव, [ मा द्राक्षीः ] मत देख अर्थात् विना सम्यग्ज्ञानके मोक्ष नहीं होता । उसका दृष्टांत कहते हैं । [ बहुना ] बहुत [ सलिलविलोडितेन ] पानीके मथने से भी [कर: ] हाथ [ चिक्कणो ] चीकना [ न भवति ] नहीं होता । क्योंकि जलमें चिकनापन है ही नहीं । जैसे जलमें चिकनाई नहीं है, वैसे बाहिरी भेषमें सम्यग्ज्ञान नहीं है । सम्यग्ज्ञानके विना महान् तप करो, तो भी मोक्ष नहीं होता । क्योंकि सम्यग्ज्ञानका लक्षण वीतराग शुद्धात्माकी अनुभूति है, वही मोक्षका मूल है । वह सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनादिसे भिन्न नहीं है, तीनों एक हैं |७४ |
आगे निश्चयकर आत्मज्ञानसे बहिर्मुख बाह्य पदार्थोंका ज्ञान है, उससे प्रयोजन नहीं सधता, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर कहते हैं - [ यत् ] जो [निजबोधात् ] आत्मज्ञानसे [बाह्यं] बाहर (रहित ) [ ज्ञानमपि ] शास्त्र वगैरहका ज्ञान भी है, [तेन ] उस ज्ञानसे [ कार्यं न ] कुछ काम नहीं [येन] क्योंकि [ तपः ] वीतरागस्वसंवेदनज्ञान रहित तप [ क्षणेन] शीघ्र ही [ जीवस्य ] जीवको [दुःखस्य कारणं ] दुःखका कारण [ भवति ] होता है । भावार्थ - निदानबंध आदि तीन शल्योंको आदि ले समस्त विषयाभिलाषरूप मनोरथोंके विकल्पजालरूपी अग्निकी ज्वालाओंसे रहित जो निज सम्यग्ज्ञान है, उससे रहित बाह्य पदार्थोंका शास्त्रद्वारा ज्ञान है, उससे कुछ काम नहीं । कार्य तो एक निज आत्माके जाननेसे है । यहाँ शिष्यने प्रश्न किया, कि निदानबंध रहित आत्मज्ञान तुमने बतलाया, उसमें निदानबंध किसे कहते हैं ? उसका समाधान - जो देखे सुने और भोगे हुए
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