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परमात्मप्रकाशः
-दोहा ७० ]
१९१ गुणा लभ्यन्ते । अत्र तु भणितमात्मनः शुद्धपरिणाम एव धर्मः, तत्र सर्वे धर्माश्च लभ्यन्ते । को विशेषः। परिहारमाह। तत्र शुद्धोपयोगसंज्ञा मुख्या, अत्र तु धर्मसंज्ञा मुख्या एतावान् विशेषः । तात्पर्य तदेव । तेन कारणेन सर्वप्रकारेण शुद्धपरिणाम एव कर्तव्य इति भावार्थः ॥ ६८ ॥ अथ विशुद्धभाव एव मोक्षमार्ग इति दर्शयति
सिद्धिहि केरा पंथडा भाउ विसुद्धउ एक्कु। जो तसु भावहँ मुणि चलइ सो किम होइ विमुक्कु॥ ६९ ॥ सिद्धेः संबन्धी पन्थाः भावो विशुद्ध एकः ।।
यः तस्माद्भावात् मुनिश्चलति स कथं भवति विमुक्तः ॥ ६९ ॥ सिद्धिहिं इत्यादि । सिद्धिहि केरा सिद्धेमुक्तेः संबन्धी पंथडा पन्था मार्गः। कोऽसौ। भाउ भावः परिणामः कथंभूतः। विसुद्धउ विशुद्धः एकु एक एवाद्वितीयः। जो तसु भावहं मुणि चलइ यस्तस्माद्भावान्मुनिश्चलति । सो किम होइ विमुकु स मुनिः कथं मुक्तो भवति न कथमपीति । तद्यथा। योऽसौ समस्तशुभाशुभसंकल्पविकल्परहितो जीवस्य शुद्धभावः स एव निश्चयरत्नत्रयात्मको मोक्षमार्गः। यस्तस्मात् शुद्धात्मपरिणामान्मुनिश्च्युतो भवति स कथं मोक्षं लभते किंतु नैव । अत्र येन कारणेन निजशुद्धात्मानुभूतिपरिणाम एव मोक्षमार्गस्तेन कारणेन मोक्षार्थिना स एव निरन्तरं कर्तव्य इति तात्पर्यार्थः ॥ ६९ ॥
अथ क्वापि देशे गच्छ किमप्यनुष्ठानं कुरु तथापि चित्तशुद्धिं विना मोक्षो नास्तीति प्रकटयति
जहि भावइ तहि जाहि जिय जं भावह करि तं जि।
केम्वइ मोक्खु ण अत्थि पर चित्तहँ सुद्धि ण जं जि ॥ ७० ॥ उसका समाधान-पहले दोहेमें तो शुद्धोपयोग मुख्य कहा था, और इस दोहेमें धर्म मुख्य कहा है। शुद्धोपयोगका ही नाम धर्म है, तथा धर्मका ही नाम शुद्धोपयोग है । शब्दका भेद है, अर्थका भेद नहीं है । दोनोंका तात्पर्य एक है । इसलिए सब तरह शुद्ध परिणाम ही कर्तव्य है, वही धर्म है ।६८। __ आगे शुद्ध भाव ही मोक्षका मार्ग है, ऐसा दिखलाते हैं-[सिद्धेः संबंधी] मुक्तिका [पंथाः] मार्ग [एकः विशुद्धः भावः] एक शुद्ध भाव ही है । [यः मुनिः] जो मुनि [तस्मात् भावात्] उस शुद्ध भावसे [चलति] चलायमान हो जावे, तो [सः] वह [कथं] कैसे [विमुक्तः] मुक्त [भवति] हो सकता है ? किसी प्रकार नहीं हो सकता ॥ भावार्थ-जो समस्त शुभाशुभ संकल्प विकल्पोंसे रहित जीवका शुद्ध भाव है, वही निश्चयरत्नत्रयस्वरूप मोक्षका मार्ग है । जो मुनि शुद्धात्म परिणामसे च्युत हो जावे, वह किस तरह मोक्षको पा सकता है ? नहीं पा सकता । मोक्षका मार्ग एक शुद्ध भाव ही है, इसलिये मोक्षके इच्छुकको वही भाव हमेशा करना चाहिए ॥६९।।
आगे यह प्रकट करते हैं, कि किसी देशमें जाओ, चाहे जो तप करो, तो भी चित्तकी शुद्धिके बिना मोक्ष नहीं है जीव] हे जीव, [यत्र] जहाँ [भाति] तेरी इच्छा हो [तत्र] उसी देशमें [याहि]
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