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-दोहा ३५ ] परमात्मप्रकाश:
१५५ मवलोकनं दर्शनमिति व्याख्यातं भवद्भिरिदं तु सत्तावलोकदर्शनं मिथ्यादृष्टीनामप्यस्ति तेषामपि मोक्षो भवतु । परिहारमाह । चक्षुरचक्षुरवधिकेवलभेदेन चतुर्धा दर्शनम् । अत्र चतुष्टयमध्ये मानसमचक्षुर्दर्शनमात्मग्राहकं भवति, तच्च मिथ्यावादिसप्तप्रकृत्युपशमक्षयोपशमक्षयजनिततत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्यक्वाभावात् शुद्धात्मतत्त्वमेवोपादेयमिति श्रद्धानाभावे सति तेषां मिथ्यादृष्टीनां न भवत्येवेति भावार्थः ॥ ३४ ॥ अथ छद्मस्थानां सत्तावलोकदर्शनपूर्वकं ज्ञानं भवतीति प्रतिपादयति
दसणपुव्वु हवेइ फुड जं जीवहँ विण्णाणु । वत्थु-विसेसु मुणंतु जिय तं मुणि अविचलु णाणु ॥ ३५ ॥ दर्शनपूर्वं भवति स्फुटं यत् जीवानां विज्ञानम् ।
वस्तुविशेषं जानन् जीव तत् मन्यस्व अविचलं ज्ञानम् ॥ ३५ ॥ दंसणुपुव्वु इत्यादि । दसणपुव्वु सामान्यग्राहकनिर्विकल्पसत्तावलोकदर्शनपूर्वकं हवेइ भवति फुड स्फुटं जं यत् जीवहं जीवानाम् । किं भवति । विण्णाणु विज्ञानम् । किं कुर्वन् सन् । वत्थुविसेसु मुणंतु वस्तुविशेष वर्णसंस्थानादिविकल्पपूर्वकं जानन् । जिय हे जीव । तं तत् मुणि मन्यस्व जानीहि । किं जानीहि अविचलु णाणु अविचलं संशयविपर्ययानध्यवसायरहितं ज्ञानमिति। तत्रेदं दर्शनपूर्वकं ज्ञानं व्याख्यातम् । यद्यपि शुद्धात्मभावनाव्याख्यानकाले प्रस्तुतं न भवति तथापि भणितं भगवता । कस्मादिति चेत् । चक्षुरचक्षुरवधिकेवलभेदेन दर्शनोपयोगश्चक्षयोपशम, तथा क्षयसे होता है । सो सम्यग्दृष्टिके तो यह दर्शन तत्त्वार्थश्रद्धानरूप होनेसे मोक्षका कारण है, जिसमें शुद्ध आत्मतत्त्व ही उपादेय है, और मिथ्यादृष्टियोंके तत्त्वश्रद्धान नहीं होनेसे आत्माका दर्शन नहीं होता । मिथ्यादृष्टियोंके स्थूलरूप परद्रव्यका देखना जानना मन और इन्द्रियोंके द्वारा होता है, वह सम्यग्दर्शन नहीं है, इसलिये मोक्षका कारण भी नहीं है । सारांश यह है-कि तत्त्वार्थश्रद्धानके अभावसे सम्यक्त्वका अभाव हैं, और सम्यक्त्वके अभावसे मोक्षका अभाव है ॥३४॥ ___आगे केवलज्ञानके पहले छद्मस्थोंके पहले दर्शन होता है, उसके बाद ज्ञान होता है, और केवली भगवानके दर्शन और ज्ञान एक साथ ही होते हैं-आगे पीछे नहीं होते, यह कहते हैं[यत्] जो [जीवानां] जीवोंके [विज्ञानं] ज्ञान है, वह [स्फुटं] निश्चयकरके [दर्शनपूर्वं] दर्शनके बादमें [भवति] होता है, [तत् ज्ञानं] वह ज्ञान [वस्तुविशेषं जानन्] वस्तुकी विस्तीर्णताको जाननेवाला है, उस ज्ञानको [जीव] हे जीव, [अविचलं] संशय विमोह विभ्रमसे रहित [मन्यस्व] तू जान ।। भावार्थ-जो सामान्यको ग्रहण करे, विशेष न जाने, वह दर्शन है, तथा जो वस्तुका विशेष वर्णन आकार जाने वह ज्ञान है । यह दर्शन ज्ञानका व्याख्यान किया । यद्यपि यह व्यवहारसम्यग्ज्ञान शुद्धात्माकी भावनाके व्याख्यानके समय प्रशंसा योग्य नहीं है, तो भी प्रथम अवस्थामें प्रशंसा योग्य है, ऐसा भगवानने कहा है । क्योंकि चक्षु अचक्षु अवधि केवलके
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