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योगीन्दुदेवविरचितः
[अ० २, दोहा ४७भावनापराङ्मुखः सन् जगज्जागति स्वशुद्धात्मपरिज्ञानरहितः सकलोऽज्ञानी जनः सा णिसि मणिवि सुवेइ तां रात्रि मला त्रिगुप्तिगुप्तः सन् वीतरागनिर्विकल्पपरमसमाधियोगनिद्रायां स्वपिति इति निद्रां करोतीति । अत्र बहिर्विषये शयनमेवोपशमो भण्यत इति तात्पर्यार्थः ।। ४६*१ ॥ अथ ज्ञानी पुरुषः परमवीतरागरूपं समभावं मुक्त्वा बहिर्विषये रागं न गच्छतीति दर्शयति
णाणि मुएप्पिणु भाउ समु कित्थु वि जाइ ण राउ । जेण लहेसह णाणमउ तेण जि अप्प-सहाउ ॥४७॥ ज्ञानी मुक्त्वा भावं शमं कापि याति न रागम् ।
येन लभिष्यति ज्ञानमयं तेन एवं आनस्वभावम् ॥ ४७ ॥ णाणि इत्यादि । णाणि परमात्मरागाद्यास्रवयोर्भेदज्ञानी मुएप्पिणु मुक्त्वा । कम् । भाउ भावम् । कथंभूतं भावम् । समु उपशमं पञ्चेन्द्रियविषयाभिलाषरहितं वीतरागपरमाह्लादसहितम् । कित्थु वि जाइ णराउ तं पूर्वोक्तं समभावं मुक्त्वा कापि बहिविषये रागं न याति न गच्छति । कस्मादिति चेत् । जेण लहेसइ येन कारणेन लभिष्यति भाविकाले प्राप्स्यति । कम्। णाणमउ ज्ञानमयं केवलज्ञाननिवृत्तं केवलज्ञानान्तर्भूतानन्तगुणं । तेण जि तेनैव समभावेन अप्पसहाउ निर्दोषिपरमात्मस्वभावमिति । इदमत्र तात्पर्यम् । ज्ञानी पुरुषः शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं समभावं कषायरूप अविद्या में सदा सावधान हैं, जाग रहे हैं, उस अवस्थामें विभावपर्यायके स्मरण करनेवाले महामुनि सावधान (जागते) नहीं रहते । इसलिए संसारकी दशामें सोते हुए से मालूम पडते हैं । जिनको आत्मस्वभावके सिवाय विषय-कषायरूप प्रपंच मालूम भी नहीं है । उस प्रपंचको रात्रिके समान जानकर उसमें याद नहीं रखते, मन, वचन, कायकी तीन गुप्तिमें अचल हुए वीतराग निर्विकल्प परम समाधिरूप योग-निद्रामें मगन हो रहे हैं । सारांश यह है, कि ध्यानी मुनियोंको आत्मस्वरूप ही गम्य है, प्रपंच गम्य नहीं है, और जगतके प्रपंची मिथ्यादृष्टि जीव उनको आत्मस्वरूपकी गम्य नहीं है, अनेक प्रपंचोंमें (झगडोंमें) लगे हुए हैं । प्रपंचकी सावधानी रखनेको भूल जाना वही परमार्थ है, तथा बाह्य विषयोंमें जाग्रत होना ही भूल है ॥४६*१॥ ___ आगे जो ज्ञानी पुरुष हैं, वे परमवीतरागरूप समभावको छोडकर शरीरादि परद्रव्यमें राग नहीं करते, ऐसा दिखलाते हैं-[ज्ञानी] निजपरके भेदका जाननेवाला ज्ञानी मुनि [शमं भावं] समभावको [मुक्त्वा ] छोडकर [क्वापि] किसी पदार्थमें [रागं न याति] राग नहीं करता, [येन] इसी कारण [ज्ञानमयं] ज्ञानमयी निर्वाणपद [प्राप्स्यति] पावेगा, [तेनैव] और उसी समभावसे [आत्मस्वभावं] केवलज्ञान पूर्ण आत्मस्वभावको आगे पावेगा । भावार्थ-जो अनन्त सिद्ध हुए वे समभावके प्रसादसे हुए हैं, और जो होवेंगे, इसी भावसे होंगे । इसलिए ज्ञानी समभावके सिवाय अन्य भावोंमें राग नहीं करते । इस समभावके बिना अन्य उपायसे शुद्धात्माका लाभ नहीं है । एक समभाव ही भवसागरसे पार होनेका उपाय है । समभाव उसे कहते हैं, जो पंचेन्द्रियके विषयोंकी अभिलाषासे रहित वीतराग परमानंदसहित निर्विकल्प निजभाव हो ॥४७॥
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