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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ३४पशमिकसम्यक्त्वग्रहणकाले परमागमप्रसिद्धानधाप्रवृत्तिकरणादिविकल्पान् जीवः करोति न चात्रेहादिपूर्वकवेन स्मरणमस्ति तथात्र शुक्लध्याने चेति । इदमत्र तात्पर्यम् । प्राथमिकानां चित्तस्थितिकरणाथै विषयकषायानवञ्चनार्थ च परंपरया मुक्तिकारणमर्हदादिपरद्रव्यं ध्येयम् , पश्चात् चित्ते स्थिरीभूते साक्षान्मुक्तिकारणं स्वशुद्धात्मतत्त्वमेव ध्येयं नास्त्येकान्तः, एवं साध्यसाधकभावं ज्ञाखा ध्येयविषये विवादो न कर्तव्यः इति ॥ ३३ ॥ अथ सामान्यग्राहकं निर्विकल्पं सत्तावलोकदर्शनं कथयति
सयल-पयत्थहँ जं गहणु जीवहँ अग्गिमु होइ । वत्थु-विसेस-विवज्जियउ तं णिय-दसणु जोइ ॥ ३४ ॥ सकलपदार्थानां यद् ग्रहणं जीवानां अग्रिम भवति ।
वस्तुविशेषविवर्जितं तत् निजदर्शनं पश्य ॥ ३४ ॥ सयल इत्यादि। सयलपयत्थहं सकलपदार्थानां जं गहणु यद् ग्रहणमवलोकनम् । कस्य। जीवहं जीवस्य अथवा बहुवचनपक्षे 'जीवहं' जीवानाम् । कथंभूतमवलोकनम् । अग्गिमु अग्रिमं सविकल्पज्ञानात्पूर्व होइ भवति । पुनरपि कथंभूतम् । वत्थुविसेसविवजियउ वस्तुविशेषविवर्जितं शुक्लमिदमित्यादिविकल्परहितं तं तत्पूर्वोक्तलक्षणं णियदंसणु निज आत्मा तस्य दर्शनमवलोकनं जोइ पश्य जानीहीति । अत्राह प्रभाकरभट्टः । निजात्मा तस्य दर्शनजीव करता हैं, वे वांछापूर्वक नहीं होते, सहज ही होते हैं, वैसे ही शुक्लध्यानमें भी ऐसे ही जानना । तात्पर्य यह है कि प्रथम अवस्थामें चित्तके थिर करनेके लिए और विषयकषायरूप खोटे ध्यानके रोकनेके लिये परम्पराय मुक्तिके कारणरूप अरहंत आदि पंचपरमेष्ठी ध्यान करने योग्य हैं, बादमें चित्तके स्थिर होनेपर साक्षात् मुक्तिका कारण जो निज शुद्धात्मतत्त्व है, वही ध्यावने योग्य है । इस प्रकार साध्य साधकभावको जानकर ध्यावने योग्य वस्तुमें विवाद नहीं करना, पंचपरमेष्ठीका ध्यान साधक है, और आत्मध्यान साध्य है, यह निःसंदेह जानना ॥३३॥
आगे सामान्य ग्राहक निर्विकल्प सत्तावलोकनरूप दर्शनको कहते हैं-[यत्] जो [जीवानां] जीवोंके [अग्रिमं] ज्ञानके पहले [सकलपदार्थानां] सब पदार्थोंका [वस्तुविवर्जितं] यह सफेद है, इत्यादि भेद रहित [ग्रहणं] सामान्यरूप देखना, [तत्] वह [निजदर्शनं] दर्शन है, [पश्य] उसको तू जान ।। भावार्थ-यहाँ प्रभाकरभट्ट पूछता है, कि आपने जो कहा कि निजात्माका देखना वह दर्शन हैं, ऐसा बहुत बार तुमने कहा है, अब सामान्य अवलोकनरूप दर्शन कहते हैं । ऐसा दर्शन तो मिथ्यादृष्टियोंके भी होता है, उनको भी मोक्ष कहना चाहिये ? इसका समाधान -चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन ये दर्शनके चार भेद हैं । इन चारोंमें मनकर जो देखना वह अचक्षुदर्शन, जो आँखोंसे देखना वह चक्षुदर्शन है । इन चारों से आत्माका अवलोकन छद्मस्थअवस्थामें मनसे होता है, और वह आत्मदर्शन मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियोंके उपशम,
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