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-दोहा ३६ ] परमात्मप्रकाशः
१५७ निरोधरूपवाह्याभ्यन्तरलक्षणं द्वादशविधं तपश्च । किंविशिष्टः स तपोधनस्तत्तपश्च । संगविहीणु संगविहीनो बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहित इति । अत्राह प्रभाकरभट्टः । ध्यानेन निर्जरा भणिता भवद्भिः उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमिति ध्यानलक्षणं, उत्तमसंहननाभावे कथं ध्यानमिति । भगवानाह । उत्तमसंहननेन यद्धयानं भणितं तदपूर्वगुणस्थानादिषूपशमक्षपकश्रेण्योर्यत् शुक्लध्यानं तदपेक्षया भणितम् । अपूर्वगुणस्थानादधस्तनगुणस्थानेषु धर्मध्यानस्य निषेधकं न भवति । तथाचोक्तं तत्त्वानुशासने ध्यानग्रन्थे-" यत्पुनर्वज्रकायस्य ध्यानमित्यागमे वचः। श्रेण्योानं प्रतीत्योक्तं तन्नाधस्तानिषेधकम् ॥"। किं च । रागद्वेषाभावलक्षणं परमं यथाख्यातरूपं स्वरूपे चरणं निश्चयचारित्रं भणन्ति इदानीं तदभावेऽन्यच्चारित्रमाचरन्तु तपोधनाः। यहाँ प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया, कि हे प्रभो; आपने ध्यानसे निर्जरा कही, वह ध्यान एकाग्र चित्तका निरोधरूप उत्तम संहननवाले मुनिके होता है, जहाँ उत्तमसंहनन ही नहीं है, वहाँ ध्यान किस तरहसे हो सकता है ? उसका समाधान श्रीगुरु कहते हैं-उत्तम संहननवाले मुनिके जो ध्यान कहा है, वह आठवें गुणस्थानसे लेकर उपशम क्षपकश्रेणीवालोंके जो शुक्लध्यान होता है, उसकी अपेक्षा कहा गया है । उपशमश्रेणी वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच, नाराच इन तीन संहननवालोंके होती हैं, उनके शुक्लध्यानका पहला पाया है, वे ग्यारहवें गुणस्थानसे नीचे आते हैं, और क्षपकश्रेणी एक वज्रवृषभनाराच संहननवालेके ही होती है, वे आठवें गुणस्थानमें क्षपकश्रेणी मॉडते (प्रारंभ करते) हैं, उनके आठवें गुणस्थानमें शुक्लध्यानका पहला पाया (भेद) होता है, वह आठवें नववें दशवें तथा दशवेंसे बारहवें गुणस्थानमें स्पर्श करते हैं, ग्यारहवेंमें नहीं, तथा बारहवेंमें शुक्लध्यानका दूसरा पाया होता है, उसके प्रसादसे केवलज्ञान पाता है, और उसी भवमें मोक्षको जाता है । इसलिये उत्तम संहननका कथन शुक्लध्यानकी अपेक्षासे है । आठवें गुणस्थानसे नीचेके चौथेसे लेकर सातवेंतक शुक्लध्यान नहीं होता, धर्मध्यान छहों संहननवालोंके है, श्रेणीके नीचे धर्मध्यान ही है, उसका निषेध किसी संहननमें नहीं है । ऐसा ही कथन तत्त्वानुशासन नामक ग्रंथमें कहा है 'यत्पुनः' इत्यादि । उसका अर्थ ऐसा है, कि वज्रकायके ही ध्यान होता है, ऐसा जो आगमका वचन है, वह दोनों श्रेणियोंमें शुक्लध्यान होनेकी अपेक्षा है, और श्रेणीके नीचे जो धर्मध्यान है, उसका निषेध (न होना) किसी संहननमें नहीं कहा है, यह निश्चयसे जानना । रागद्वेषके अभावरूप उत्कृष्ट यथाख्यातस्वरूप स्वरूपाचरण ही निश्चयचारित्र है, वह इस समय पंचमकालमें भरतक्षेत्रमें नहीं है, इसलिये साधुजन अन्य चारित्रका आचरण करो । चारित्रके पाँच भेद हैं, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात । उनमें इस समय इस क्षेत्रमें सामायिक छेदोपस्थापना ये दो ही चारित्र होते हैं, अन्य नहीं, इसलिये इनको ही आचरो । तत्त्वानुशासनमें भी कहा है ‘चरितारो' इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है, कि इस समय यथाख्यातचारित्रके आचरण करनेवाले मौजूद नहीं है, तो क्या हुआ ? अपनी शक्तिके अनुसार तपस्वीजन सामायिक छेदोपस्थापनाका आचरण करो । फिर श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने भी मोक्षपाहुडमें ऐसा ही कहा है ‘अज्ज
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