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-दोहा ४३ ] परमात्मप्रकाशः
१६३ हे जीव मोहं मुश्च, येन मोहेन मोहनिमित्तवस्तुना वा निष्कषायपरमात्मतत्त्वविनाशकाः क्रोधादिकषाया भवन्ति पश्चान्मोहकषायाभावे सति रागरहितं विशुद्धज्ञानं लभसे खमित्यभिप्रायः। तथा चोक्तम्- "तं वत्थु मुत्तव्वं जं पडि उपज्जए कसायग्गी । तं वत्थुमल्लिएजो ( तद् वस्तु अंगीकरोति, इति टिप्पणी) जत्थुवसम्मो कसायाणं ॥" ॥ ४२ ॥
अथ हेयोपादेयतत्त्वं ज्ञाखा परमोपशमे स्थिखा येषां ज्ञानिनां स्वशुद्धात्मनि रतिस्त एव सुखिन इति कथयति
तत्तातत्तु मुणेवि मणि जे थक्का सम-भावि । ते पर सुहिया इत्थु जगि जहँ रइ अप्प-सहावि ।। ४३ ॥ तत्त्वातत्त्वं मत्वा मनसि ये स्थिताः समभावे ।
ते परं सुखिनः अत्र जगति येषां रतिः आत्मस्वभावे ॥ ४३ ॥ तत्तातत्तु इत्यादि । तत्तातत्तु मुणेवि अन्तस्तत्त्वं बहिस्तत्त्वं मखा । क । मणि मनसि जे ये केचन वीतरागस्वसंवेदनप्रत्यक्षज्ञानिनः थका स्थिता । क । समभावि परमोपशमपरिणामे ते पर त एव सुहिया सुखिनः इत्थु जगि अत्र जगति । के ते । जहं रइ येषां रतिः । क । अप्पसहावि स्वकीयशुद्धात्मस्वभावे इति। तथाहि । यद्यपि व्यवहारेणानादिबन्धनबद्धं तिष्ठति तथापि शुद्धनिश्चयेन प्रकृतिस्थित्यनुभागमदेशबन्धरहितं, यद्यप्यशुद्धनिश्चयेन प्रकृतशुभाशुभकर्मफलभोक्ता है, इसलिये मोह कषायके अभाव होनेपर ही रागादि रहित निर्मल ज्ञानको तू पा सकेगा । ऐसा दूसरी जगह भी कहा है- “तं वत्थु" इत्यादि । अर्थात् वह वस्तु मन वचन कायसे छोडनी चाहिये, कि जिससे कषायरूपी अग्नि न उत्पन्न हो, तथा उस वस्तुको अंगीकार करना चाहिये, जिससे कषाय शांत हों । तात्पर्य यह है, कि विषयादिक सब सामग्री और मिथ्यादृष्टि पापियोंका संग सब तरहसे मोहकषायको उपजाते हैं, इससे ही मनमें कषायरूपी अग्नि दहकती रहती है । वह सब प्रकारसे छोडना चाहिये, और सत्संगति तथा शुभ सामग्री (कारण) कषायोंको उपशमाती है,-कषायरूपी अग्निको बुझाती है, इसलिये उस संगति वगैरहको अंगीकार करना चाहिये ॥४२।। ____ आगे हेयोपादेय तत्त्वको जानकर परम शांतभावमें स्थित होकर जिनके निःकषायभाव हुआ और निजशुद्धात्मामें जिनकी लीनता हुई, वे ही ज्ञानी परम सुखी हैं, ऐसा कथन करते हैं-[ये] जो कोई वीतराग स्वसंवेदन प्रत्यक्षज्ञानी जीव [तत्त्वातत्त्वं] आराधने योग्य निज पदार्थ और त्यागने योग्य रागादि सकल विभावोंको [मनसि] मनमें [मत्वा] जानकर [समभावे स्थिताः] शांतभावमें तिष्ठते हैं, और [येषां रतिः] जिनकी लगन [आत्मस्वभावे] निज शुद्धात्म स्वभावमें हुई है, [ते परं] वे ही जीव [अत्र जगति] इस संसारमें [सुखिनः] सुखी हैं ।। भावार्थ-यद्यपि यह आत्मा व्यवहारनयकर अनादिकालसे कर्मबंधनकर बँधा है, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर प्रकृति, स्थति, अनुभाग, प्रदेश-इन चार तरहके बंधनोंसे रहित है, यद्यपि अशुद्धनिश्चयनयसे अपने उपार्जन केये शुभ अशुभ कर्मोंके फलका भोक्ता है, तो भी शुद्धद्रव्यार्थिकनयसे निज शुद्धात्मतत्त्वकी
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