Book Title: Parmatmaprakasha and Yogsara
Author(s): Yogindudev, A N Upadhye
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 289
________________ १२८ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १४अथ भेदरत्नत्रयात्मकं व्यवहारमोक्षमार्ग दर्शयति जं बोल्लइ ववहारु-णउ दंसणु णाणु चरित्तु । तं परियाणहि जीव तुहुँ जे परु होहि पवित्तु ॥ १४ ॥ यद् ब्रूते व्यवहारनयः दर्शनं ज्ञानं चारित्रम् । तत् परिजानीहि जीव त्वं येन परः भवसि पवित्रः ॥ १४ ॥ जं इत्यादि । जं यत् बोल्लइ ब्रूते । कोऽसौ कर्ता । ववहारणउ व्यवहारनयः । यत् किं ब्रूते । दसणु णाणु चरित्तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं तं पूर्वोक्तं भेदरत्नत्रयस्वरूपं परियाणहि परि समन्तात् जानीहि । जीव तुहु हे जीव वं कर्ता । जे येन भेदरत्नत्रयपरिज्ञानेन परु होहि परः उत्कृष्टो भवसि लम् । पुनरपि किंविशिष्टस्वम् । पवित्तु पवित्रः सर्वजनपूज्य इति । तद्यथा। हे जीव सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपनिश्चयरबत्रयलक्षणनिश्चयमोक्षमार्गसाधकं व्यवहारमोक्षमार्ग जानीहि । खं येन ज्ञातेन कथंभूतो भविष्यसि । परंपरया पवित्रः परमात्मा भविष्यसि इति । व्यवहारनिश्चयमोक्षमार्गस्वरूपं कथ्यते । तद्यथा। वीतरागसर्वज्ञप्रणीतषड्द्रव्यादिसम्यश्रद्धानज्ञानव्रताधनुष्ठानरूपो व्यवहारमोक्षमार्गः निजशुद्धात्मसम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठान___ आगे भेदरत्नत्रयस्वरूप-व्यवहार वह परम्पराय मोक्षका मार्ग है, ऐसा दिखलाते हैं जीव] हे जीव, [व्यवहारनयः] व्यवहारनय [यत्] जो [दर्शनं ज्ञानं चारित्रं] दर्शन ज्ञान चारित्र इन तीनोंको [ब्रूते] कहता है, [तत्] उस व्यवहारत्नत्रयको [त्वं] तू [परिजानीहि] जान, [येन] जिससे कि [परः पवित्रः] उत्कृष्ट अर्थात् पवित्र [भवसि] होवे ॥ भावार्थ-हे जीव, तू तत्त्वार्थका श्रद्धान, शास्त्रका ज्ञान और अशभ क्रियाओंका त्यागरूप सम्यगदर्शनज्ञानचारित्र व्यवहारमोक्षमार्गको जान. क्योंकि ये निश्चयरत्नत्रयरूप निश्चयमोक्षमार्गक साधक हैं, इनके जाननेसे किसी समय परम पवित्र परमात्मा हो जायगा । पहले व्यवहाररत्नत्रयकी प्राप्ति हो जावे, तब ही निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्ति हो सकती हैं, इसमें संदेह नहीं है । जो अनन्त सिद्ध हुए और होवेंगे वे पहले व्यवहाररत्नत्रयको पाकर निश्चयरत्नत्रयरूप हुए । व्यवहार साधन है, और निश्चय साध्य है । व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्गका स्वरूप कहते हैं-वीतराग सर्वज्ञदेवके कहे हुए छह द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय, इनका श्रद्धान, इनके स्वरूपका ज्ञान, और शुभ क्रियाका आचरण, यह व्यवहार मोक्षमार्ग है, और निज शुद्ध आत्माका सम्यक् श्रद्धान, स्वरूपका ज्ञान, और स्वरूपका आचरण यह निश्चयमोक्षमार्ग है । साधनके बिना सिद्धि नहीं होती, इसलिये व्यवहारके बिना निश्चयकी प्राप्ति नहीं होती । यह कथन सुनकर शिष्यने प्रश्न किया कि हे प्रभो, निश्चयमोक्षमार्ग जो निश्चयरत्नत्रय वह तो निर्विकल्प है, और व्यवहाररत्नत्रय विकल्प सहित हैं, सो यह विकल्प-दशा निर्विकल्पपनेकी साधन कैसे हो सकती है ? इस कारण उसको साधक मत कहो । अब इसका समाधान करते हैं । जो अनादिकालका यह जीव विषय कषायोंसे मलीन हो रहा है, सो व्यवहारसाधनके बिना उज्ज्वल नहीं हो सकता, जब मिथ्यात्व अव्रत कषायादिकी क्षीणतासे देव गुरु धर्मकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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