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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा २३अप्पपएसहिं आत्मप्रदेशैः । कतिसंख्योपेतानि । सव्व सर्वाणि इति । तथाहि । जीवद्रव्याणि पृथक् पृथक् जीवद्रव्यगणनेनानन्तसंख्यानि पुद्गलद्रव्याणि तेभ्योऽप्यनन्तगुणानि भवन्ति । धर्माधर्माकाशानि पुनरेकद्रव्याण्येवेति । अत्र जीवद्रव्यमेवोपादेयं तत्रापि यद्यपि शुद्धनिश्चयेन शक्त्यपेक्षया सर्वे जीवा उपादेयास्तथापि व्यक्त्यपेक्षया पञ्च परमेष्ठिन एव, तेष्वपि मध्ये विशेषेणार्हत्सिद्धा एव तयोरपि मध्ये सिद्धा एव, परमार्थेन तु मिथ्यावरागादिविभावपरिणामनिवृत्तिकाले स्वशुद्धात्मैवोपादेय इत्युपादेयपरंपरा ज्ञातव्येति भावार्थः ॥ २२ ॥ अथ जीवपुद्गलौ सक्रियौ धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि निःक्रियाणीति प्रतिपादयति
दव्व चयारि वि इयर जिय गमणागमण-विहीण। जीउ वि पुग्गल परिहरिवि पभणहिणाण-पवीण ॥ २३ ॥ द्रव्याणि चत्वारि अपि इतराणि जीव गमनागमनविहीनानि ।
जीवमपि पुद्गलं परिहृत्य प्रभणन्ति ज्ञानप्रवीणाः ॥ २३॥ दव्व इत्यादि । व्व द्रव्याणि । कतिसंख्योपेतानि एव । चयारि वि चखार्येव इयर जीवपुद्गलाभ्यामितराणि जिय हे जीव । कथंभूतान्येतानि। गमणागमणविहीण गमनागमनविहीनानि निःक्रियाणि चलनक्रियाविहीनानि । किं कृता । जीउ वि पुग्गलु परिहरिवि जीवपुद्गलौ परिहत्य पभणहिं एवं प्रभणन्ति कथयन्ति । के ते । णाणपवीण भेदाभेदरत्नअखंडित हैं ॥ भावार्थ- जीवद्रव्य जुदा जुदा जीवोंकी गणनासे अनंत हैं, पुद्गलद्रव्य उससे भी अनंतगुणे हैं, कालद्रव्याणु असंख्यात हैं, धर्मद्रव्य एक हैं, और वह लोकव्यापी है, अधर्मद्रव्य भी एक है, और वह लोकव्यापी है, ये दोनों द्रव्य असंख्यात प्रदेशी हैं, और आकाशद्रव्य अलोककी अपेक्षा अनंतप्रदेशी है, तथा लोककी अपेक्षा असंख्यातप्रदेशी हैं । ये सब द्रव्य अपने-अपने प्रदेशोंकर सहित हैं, किसीके प्रदेश किसीसे नहीं मिलते । इन छहों द्रव्योंमें जीव ही उपादेय है । यद्यपि शुद्ध निश्चयसे शक्तिकी अपेक्षा सभी जीव उपादेय हैं, तो भी व्यक्तिकी अपेक्षा पंचपरमेष्ठी ही उपादेय हैं, उनमें भी अरहंत सिद्ध ही हैं, उन दोनोंमें भी सिद्ध ही हैं, और निश्चयनयकर मिथ्यात्व रागादि विभावपरिणामके अभावमें विशुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा जानना ॥२२॥ ___ आगे जीव पुद्गल ये दोनों चलन-हलनादि क्रियायुक्त हैं, और धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये चारों निःक्रिय हैं, ऐसा निरूपण करते हैं-[जीव] हे हंस, [जीवं अपि पुद्गलं] जीव और पुद्गल इन दोनोंको [परिहत्य] छोडकर [इतराणि] दूसरे [चत्वारि एव द्रव्याणि] धर्मादि चारों ही द्रव्य [गमनागमनविहीनानि] चलन हलनादि क्रिया रहित हैं, जीव पुद्गल क्रियावंत हैं, गमनागमन करते हैं, ऐसा [ज्ञानप्रवीणाः] ज्ञानियोंमें चतुर रत्नत्रयके धारक केवली श्रुतकेवली [प्रभणंति] कहते हैं ॥ भावार्थ-जीवोंके संसार-अवस्थामें इस गतिसे अन्य गतिके जानेको कर्मनोकर्म जातिके पुद्गल सहायी हैं । और कर्म नोकर्मके अभावसे सिद्धोंके निःक्रियपना है, गमनागमन नहीं है । पुद्गलके स्कन्धोंको गमनका बहिरंग निमित्तकारण कालाणुरूप कालद्रव्य है ।
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