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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १५दव्बई इत्यादि । दव्वई द्रव्याणि जाणइ जानाति । कथंभूतानि । जहठियइं यथास्थितानि वीतरागस्वसंवेदनलक्षणस्य निश्चयसम्यग्ज्ञानस्य परंपरया कारणभूतेन परमागमज्ञानेन परिच्छिनत्तीति । न केवलं परिच्छिनत्ति तह तथैव जगि इह जगति मण्णइ मन्यते निजात्मद्रव्यमेवोपादेयमिति रुचिरूपं यन्निश्चयसम्यक्वं तस्य परंपरया कारणभूतेन-“ मूढत्रयं मदाथाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः" इति श्लोककथितपञ्चविंशतिसम्यक्खमलत्यागेन श्रद्दधातीति । एवं द्रव्याणि जानाति श्रद्दधाति । कोऽसौ । अप्पहं केरउ भावडउ आत्मनः संबन्धिभावः परिणामः। किंविशिष्टो भावः । अविचलु अविचलोऽपि चलमलिनावगाढदोषरहितः दंसणु दर्शनं सम्यक्वं भवतीति । क एव । सो जि स एव पूर्वोक्तो जीवभाव इति । अयमत्र भावार्थः । इदमेव सम्यक्वं चिन्तामणिरिदमेव कल्पवृक्ष इदमेव कामधेनुरिति मला भोगाकांक्षास्वरूपादिसमस्तविकल्पजालं वर्जनीयमिति । तथा चोक्तम्जानें, [तथा] और उसी तरह [जगति] इस जगतमें [मन्यते] निर्दोष श्रद्धान करे, [स एव] वही [आत्मनः संबंधी] आत्माका [अविचल: भावः] चलमलिनावगाढ दोष रहित निश्चल भाव है, [स एव] वही आत्मभाव [दर्शनं] सम्यक्दर्शन है ॥ भावार्थ-यह जगत छह द्रव्यमयी है, सो इन द्रव्योंको अच्छी तरह जानकर श्रद्धान करे, जिसमें संदेह नहीं वह सम्यग्दर्शन है, यह सम्यग्दर्शन आत्माका निज स्वभाव है । वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदन निश्चयसम्यग्ज्ञान उसका परम्पराय कारण जो परमागमका ज्ञान उसे अच्छी तरह जानें, और मनमें मानें । यह निश्चय करे कि इन सब द्रव्योंमें निज आत्मद्रव्य ही ध्यावने योग्य है, ऐसा रुचिरूप जो निश्चयसम्यक्त्व है, उसका परम्पराय कारण व्यवहारसम्यक्त्व देव गुरु धर्मकी श्रद्धा उसे स्वीकार करे । व्यवहारसम्यक्त्वके पच्चीस दोष हैं, उनको छोडे । उन पच्चीसोंको ‘मूढत्रयं" इत्यादि श्लोकमें कहा है । इसका अर्थ ऐसा है कि जहाँ देव कुदेवका विचार नहीं है, वह तो देवमूढ; जहाँ सुगुरु कुगुरुका विचार नहीं है, वह गुरुमूढ, जहाँ धर्म कुधर्मका विचार नहीं है, वह धर्ममूढ, ये तीन मूढता; और जातिमद, कुलमद, धनमद, रूपमद, तपमद, बलमद, विद्यामद, राजमद ये आठ मद । कुगुरु, कुदेव, कुधर्म, इनकी और इनके आराधकोंकी जो प्रशंसा वह छह अनायतन और निःशंकितादि आठ अंगोंसे विपरीत शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढता, परदोष-कथन, अथिरकरण, साधर्मियोंसे स्नेह नहीं रखना, और जिनधर्मकी प्रभावना नहीं करना, ये शंकादि आठ मल, इस प्रकार सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष हैं, इन दोषोंको छोडकर तत्त्वोंकी श्रद्धा करे, वह व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा जाता है । जहाँ अस्थिर बुद्धि नहीं है, और परिणामोंकी मलिनता नहीं,
और शिथिलता नहीं, वह सम्यक्त्व है । यह सम्यग्दर्शन ही कल्पवृक्ष कामधेनु चिंतामणि है, ऐसा जानकर भोगोंकी वांछारूप जो विकल्प उनको छोडकर सम्यक्त्वका ग्रहण करना चाहिये । ऐसा कहा है 'हस्ते' इत्यादि । जिसके हाथमें चिन्तामणि है, धनमें कामधेनु है, और जिसके घरमें कल्पवृक्ष है, उसके अन्य क्या प्रार्थनाकी आवश्यकता है ? कल्पवृक्ष कामधेनु चिंतामणि तो कहने
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