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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० १, दोहा १०७आत्मा ज्ञानस्य गम्यः परः ज्ञानं विजानाति येन ।
त्रीण्यपि मुक्त्वा जानीहि त्वं आत्मानं ज्ञानेन तेन ॥ १०७॥ अप्पा णाणहं गम्मु पर आत्मा ज्ञानस्य गम्यो विषयः परः । कोऽर्थः । नियमेन । कस्मात् । णाणु वियाणइ जेण ज्ञानं कर्तृ विजानात्यात्मानं येन कारणेन अतः कारणात् तिण्णि वि मिल्लिवि जाणि तुहुं त्रीण्यपि मुक्खा जानीहि वं हे प्रभाकरभट्ट, अप्पा णाणे तेण। कं जानीहि । आत्मानम् । केन। ज्ञानेन तेन कारणेनेति । तथाहि । निजशुद्धात्मा ज्ञानस्यैव गम्यः । कस्मादिति चेत् । मतिज्ञानादिकपश्चविकल्परहितं यत्परमपदं परमात्मशब्दवाच्यं साक्षान्मोक्षकारणं तद्रूपो योऽसौ परमात्मा तमात्मानं वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानगुणेन विना दुर्धरानुष्ठानं कुर्वाणा अपि बहवोऽपि न लभन्ते यतः कारणात् । तथा चोक्तं समयसारे-“णाणगुणेहि विहीणा एदं तु पदं बहू वि ण लहंति । तं गिण्हसु पदमेदं जइ इच्छसि दुक्खपरिमोक्खं ॥" । अत्र धर्मार्थकामादिसर्वपरद्रव्येच्छां योऽसौ मुञ्चति स्वशुद्धात्मसुखामृते तृप्तो भवति स एव निःपरिग्रहो भण्यते स एवात्मानं जानातीति भावार्थः । उक्तं च-" अपरिग्गहो अणिच्छो भणिओ णाणी दु णेच्छदे धम्मं । अपरिग्गडो दु धम्मस्स जाणगो तेण सो होदि ॥" ॥१०७॥ इसलिये [त्वं] हे प्रभाकरभट्ट, तू [त्रीणि अपि मुक्त्वा ] धर्म अर्थ काम इन तीनों ही भावोंको छोडकर [ज्ञानेन] ज्ञानसे [आत्मानं] निज आत्माको [जानीहि] जान ॥ भावार्थ-निज शुद्धात्मा ज्ञानके ही गोचर (जानने योग्य) है, क्योंकि मतिज्ञानादि पाँच भेदों रहित जो परमात्म शब्दका अर्थ परमपद है, वही साक्षात् मोक्षका कारण है, उस स्वरूप परमात्माको वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदन ज्ञानके विना दुर्धर तपके करनेवाले भी बहुतसे प्राणी नहीं पाते । इसलिये ज्ञानसे ही अपना स्वरूप अनुभव कर । ऐसा ही कथन श्रीकुंदकुंदाचार्यने समयसारमें किया है “णाणगुणेहिं" इत्यादि । इसका अर्थ यह है कि सम्यग्ज्ञाननामा निज गुणसे रहित पुरुष इस ब्रह्मपदको बहुत कष्ट करके भी नहीं पाते, अर्थात् यदि महान दुर्धर तप करो तो भी नहीं मिलता । इसलिये यदि तू दुःखसे छूटना चाहता है, सिद्धपदकी इच्छा रखता है, तो आत्मज्ञानकर निजपदको प्राप्त कर । यहाँ सारांश यह है, कि जो धर्म अर्थ कामादि सब परद्रव्यकी इच्छाको छोडता है, वही निज शुद्धात्मसुखरूप अमृतमें तृप्त हुआ सिद्धांतमें परिग्रह रहित कहा जाता है, और निफ्रंथ कहा जाता है, और वही अपने आत्माको जानता है । ऐसा ही समयसारमें कहा है “अपरिग्गहो" इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है, कि निज सिद्धांतमें परिग्रह रहित और इच्छारहित ज्ञानी कहा गया है । जो धर्मको भी नहीं चाहता है, अर्थात् जिसके व्यवहारधर्मकी भी कामना नहीं है, उसके अर्थ तथा कामकी इच्छा कहाँसे होवे ? वह आत्मज्ञानी सब अभिलाषाओंसे रहित है। जिसके धर्मका भी परिग्रह नहीं है, तो अन्य परिग्रह कहाँसे हो ? इसलिये वह ज्ञानी परिग्रही नहीं है, केवल निजस्वरूपका जाननेवाला ही होता है ।।१०७।।
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