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-दोहा १११] परमात्मप्रकाशः
१०३ योऽसौ मनसि निवसति देवः आराध्यः । पुनरपि किंविशिष्टः । परहं जि परतरु णाणमउ परस्मादुत्कृष्टादपि अथवा परहं जि बहुवचनं परेभ्योऽपि सकाशादतिशयेन परः परतरः । पुनरपि कथंभूतः । ज्ञानमयः केवलज्ञानेन निवृत्तः सो वुच्चइ परलोउ स एवंगुणविशिष्टः शुद्धात्मा परलोक इत्युच्यते इति । पर उत्कृष्टो वीतरागचिदानन्दैकस्वभाव आत्मा तस्य लोकोऽवलोकनं निर्विकल्पसमाधौ वानुभवनमिति परलोकशब्दस्यार्थः, अथवा लोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवादिपदार्था यस्मिन् परमात्मस्वरूपे यस्य केवलज्ञानेन वा स भवति लोकः परश्चासौ लोकश्च परलोकः व्यवहारेण पुनः स्वर्गापवर्गलक्षणः परलोको भण्यते । अत्र योऽसौ परलोकशब्दवाच्यः परमात्मा स एवोपादेय इति तात्पर्यार्थः ॥ ११० ॥ अथ
सो पर वुच्चा लोउ परु जसु मइ तित्थु वसेइ । जर्हि मइ तहि गइ जीवह जि णियमें जेण हवेइ ॥ १११॥ सः परः उच्यते लोकः परः यस्य मतिः तत्र वसति ।
यत्र मतिः तत्र गतिः जीवस्य एव नियमेन येन भवति ॥ १११ ॥ सो पर वुच्चइ लोउ परु स परः नियमेनोच्यते लोको जनः । कथंभूतो भण्यते । पर उत्कृष्टः । स कः । जसु मइ तित्थु वसेइ यस्य भव्यजनस्य मतिर्मनश्चित्तं तत्र निजपरमात्मस्वरूपे वसति विषयकषायविकल्पजालत्यागेन स्वसंवेदनसंवित्तिस्वरूपेण स्थिरीभवतीति । यस्य परमात्मतत्त्वे मतिस्तिष्ठति स कस्मात्परो भवतीति चेत् जहिं मइ तहिं गइ जीवहं जि हरिहराणां] मुनीश्वरोके समूहके तथा इंद्र वा वासुदेव रुद्रोंके [मनसि] चित्तमें [निवसति] बस रहा है, [सः] वह [परस्माद् अपि परतरः] उत्कृष्टसे भी उत्कृष्ट [ज्ञानमयः] ज्ञानमयी [परलोकः] परलोक [उच्यते] कहा जाता है । भावार्थ-परलोक शब्दका अर्थ ऐसा है कि पर अर्थात् उत्कृष्ट वीतराग चिदानंद शुद्ध स्वभाव आत्मा उसका लोक अर्थात् अवलोकन निर्विकल्पसमाधिमें अनुभवना वह परलोक है । अथवा जिसके परमात्मस्वरूपमें या केवलज्ञानमें जीवादि पदार्थ देखे जावें, इसलिये उस परमात्माका नाम परलोक है । अथवा व्यवहारनयकर स्वर्ग मोक्षको परलोक कहते हैं । स्वर्ग और मोक्षका कारण भगवानका धर्म है इसलिये केवली भगवानको परलोक कहते हैं । परमात्माके समान अपना निज आत्मा है, वही परलोक है, वही उपादेय है ।।११०॥
आगे ऐसा कहते हैं, कि जिसका मन निज आत्मामें बस रहा है, वही ज्ञानी जीव परलोक है-[यस्य मतिः] जिस भव्यजीवकी बुद्धि [तत्र] उस निज आत्मस्वरूपमें [वसति] बस रही हैं, अर्थात् विषय-कषाय-विकल्प-जालके त्यागसे स्वसंवेदन-ज्ञानस्वरूपकर स्थिर हो रही है । [सः] वह पुरुष [परः] निश्चयकर [परः लोकः] उत्कृष्ट जन [उच्यते] कहा जाता है । अर्थात् जिसकी बुद्धि निजस्वरूपमें ठहर रही है, वही उत्तम जन है, [येन] क्योंकि [यत्र मतिः] जैसी बुद्धि होती है, [तत्र] वैसी [एव] ही [जीवस्य] जीवकी [गतिः] गति [नियमेन] निश्चयकर [भवति] होती है, ऐसा जिनवरदेवने कहा है । अर्थात् शुद्धात्मस्वरूपमें जिस जीवकी बुद्धि होवे, उसको वैसी
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