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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० १, दोहा ११७शिवनामेति पुरुषः॥ ११६ ॥ अथ
जं मुणि लहइ अणंत-सुहु णिय-अप्पा झायंतु । तं सुहु इंदु वि णवि लहइ देविहिं कोडि रमंतु ।। ११७ ।। यत् मुनिः लभते अनन्तसुखं निजात्मानं ध्यायन् ।
तत् सुखं इन्द्रोऽपि नैव लभते देवीनां कोटि रमयन् ॥ ११७॥ जमित्यादि। जं यत् मुणि मुनिस्तपोधनः लहइ लभते अणंतसुहु अनन्तसुखम् । किं कुर्वन् सन् । णियअप्पा झायंतु निजात्मानं ध्यायन् सन् तं सुहु तत्पूर्वोक्तं सुखं इंदु वि णवि लहइ इन्द्रोऽपि नैव लभते। किं कुर्वन् सन् । देविहिं कोडि रमंतु देवीनां कोटिं रम्यमाणः अनुभवनिति । अयमत्र तात्पर्यार्थः । बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः स्वशुद्धात्मतत्त्वभावनोत्पमवीतरागपरमानन्दसहितो मुनिर्यत्सुखं लभते तद्देवेन्द्रादयोऽपि न लभन्त इति । तथा चोक्तम्- "दह्यमाने जगत्यस्मिन्महता मोहवहिना । विमुक्तविषयासंगाः सुखायन्ते तपोधनाः" ।। ११७ ॥
अप्पा-दंसणि जिणवरह जं सुह होइ अणंतु। तं सुहु लहइ विराउ जिउ जाणंतउ सिउ संतु ॥ ११८ ॥ आत्मदर्शने जिनवराणां यत् सुखं भवति अनन्तम् ।
तत् सुख लभते विरागः जीवः जानन शिवं शान्तम् ॥ ११८॥ अप्पा इत्यादि। अप्पादसणि निजशुद्धात्मदर्शने जिणवरहं छद्मस्थावस्थायां जिनवराणां
आगे कहते हैं कि जो सुख आत्माको ध्यावनेसे महामुनि पाते हैं, वह सुख इन्द्रादि देवोंको दुर्लभ है-[निजात्मानं ध्यायन्] अपने आत्माको ध्यावता [मुनिः] परम तपोधन (मुनि) [यद् अनंतसुखं] जो अनंतसुख [लभते] पाता है, [तत् सुखं] उस सुखको [इंद्रः अपि] इंद्र भी [देवीनां कोटिं रम्यमाणः] करोड देवियोंके साथ रमता हुआ [नैव] नहीं [लभते] पाता ॥ भावार्थ-बाह्य और अंतरंग परिग्रहसे रहित निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न हुआ जो वीतराग परमानंद सहित महामुनि जो सुख पाता है, उस सुखको इंद्रादिक भी नहीं पाते । जगतमें सुखी साधु ही हैं, अन्य कोई नहीं । यही कथन अन्य शास्त्रोंमें भी कहा है-“दह्यमाने इत्यादि" । इसका अर्थ ऐसा है कि महामोहरूपी अग्निसे जलते हुए इस जगतमें देव मनुष्य तिर्यञ्च नारकी सभी दुःखी हैं, और जिनके तप ही धन है, तथा सब विषयोंका संबंध जिन्होंने छोड दिया है, ऐसे साधु मुनि ही इस जगतमें सुखी हैं ॥११७॥ ___ आगे ऐसा कहते हैं कि वैरागी मुनि ही निज आत्माको जानते हुए निर्विकल्प सुखको पाते हैं-आत्मदर्शने] निज शुद्धात्माके दर्शनमें [यद् अनंतं सुखं] जो अनंत अद्भुत सुख [जिनवराणां] मुनि-अवस्थामें जिनेश्वरदेवोंके [भवति] होता है, [तत् सुखं] वह सुख [विरागः जीवः] वीतरागभावनाको परिणत हुआ मुनिराज [शिवं शांतं जानन्] निज शुद्धात्मस्वभावको तथा रागादि रहित शांत भावको जानता हुआ [लभते] पाता है ॥ भावार्थ-दीक्षाके समय
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