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प्रस्तावनाका हिंदी सार
१२१ आत्माको सर्वथा पृथक् अनुभवन करनेका उपदेश दिया गया है । ग्रन्थकार कहते हैं कि संसारसे भयभीत
और मोक्षके लिये उत्सुक प्राणियोंके आत्माको जगानेके लिये जोगिचन्द साधुने इन दोहोंको रचा है । ग्रन्थकार लिखते हैं कि उन्होंने ग्रन्थको दोहोंमें रचा है, किन्तु उपलब्ध प्रतिमें एक चौपाई और दो सोरठा भी हैं, इससे अनुमान होता है कि संभवतः प्रतियाँ पूर्ण सुरक्षित नहीं रही हैं । अन्तिम पद्यमें ग्रन्थकर्ताका नाम जोगिचन्द (जोइन्दु-योगीन्दु) का उल्लेख, आरम्भिक मङ्गलाचरणकी सदृशता, मुख्यविषयकी एकता, वर्णनकी शैली, और वाक्य तथा पंक्तियोंकी समानता बतलाती है कि दोनों ग्रन्थ एक ही कर्ता जोइन्दुकी रचनाएँ हैं । योगसार माणिकचन्द्रजैनग्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित हुआ है, किन्तु उसमें अनेक अशुद्धियाँ हैं । यदि उसके अशुद्ध पाठोंको दृष्टिमें न लाया जाये तो भाषाकी दृष्टिसे भी दोनों ग्रन्थोंमें समानता है । केवल कुछ अन्तर, जो पाठकके हृदयको स्पर्श करते हैं, इस प्रकार हैं-योगसारमें एक वचनमें प्रायः 'हु' और 'ह' आता है किन्तु परमात्मप्रकाशमें 'हँ' आता हैं । योगसारमें वर्तमानकालके द्वितीय पुरुषके एकवचनमें 'हु' और 'हि' पाया जाता है, किन्तु परमात्मप्रकाशमें केवल 'हि' आता है । पञ्चास्तिकायकी टीकामें जयसेनने योगसारसे एक पद्य भी उद्धृत किया है।
सावयधम्मदोहा परिचय-इस ग्रन्थमें मुख्यतया श्रावकोंके आचार साधारण किन्तु आकर्षक शैलीमें बतलाये गये हैं । उपमाओंने इसके उपदेशोंको रोचक बना दिया है और इस श्रेणीके अन्य ग्रन्थोंके साथ इसकी तुलना करनेपर इसमें पारिभाषिक शब्दोंकी कमी पाई जाती है । विषय तथा दोहाछंदके आधारपर इसका नाम श्रावकाचारदोहक है । प्रारम्भके शब्दोंके आधारपर इसे नव (नौ) कार श्रावकाचार भी कहते हैं । प्रो० हीरालालजीने बहुत कुछ ऊहापोहके बाद इसका नाम सावयधम्मदोहा रक्खा है। ___इसका कर्ता-जोइन्दु सम्बन्धी अपने लेखमें मैंने बतलाया था कि जोगीन्द्र, देवसेनी और लक्ष्मीचन्द्र या
मीधरको इसका कर्ता कहा जाता है। उसके बाद इसकी लगभग नौ प्रतियाँ प्रकाशमें आई हैं । अपनी प्रस्तावनामें इसके कर्ताके सम्बन्धमें प्रो० हीरालालजीने विस्तारसे विचार किया है किन्तु उनका दृष्टिकोण किसी भी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता। अतः उसपर विचार करना आवश्यक है ____ जोइन्दु-जोइन्दुको इसका कर्ता दो आधारपर माना जाता है, एक तो परम्परागत सूचियोंमें जोइन्दुको इसका कर्ता लिखा है, दूसरे 'अ' प्रतिके अन्तमें इसे 'जोगीन्द्रकृत' बतलाया हैं, और 'भ' प्रतिके एक पूरक पद्यमें योगीन्द्रदेवके साथ इसका नाता जोडा गया है। जोगीन्द्र और योगीन्द्रसे परमात्मप्रकाश आशय मालूम होता है । किन्तु परमात्मप्रकाश और योगसारकी तरह इस ग्रन्थमें जोइन्दने अपना नाम न दिया; दूसरे, जोइन्दुके उन्नत आध्यात्मिक विचारोंका दिग्दर्शन भी इसमें नहीं होता, तथा श्रावकाचारके मुख्य विषयकी तान रहस्यवादी जोइन्दुके स्वरसे मेल नहीं खाती । तीसरे, प्रो० हीरालालजीके मतसे जोइन्दुकी अन्य रचनाओंकी अपेक्षा इसकी कविता अधिक गहन है तथा उनका यह भी कहना है कि यह जोइन्दुकी युवावस्थाकी रचना नहीं हैं । चौथे, कुछ सामान्य विचारोंके सिवा, इसमें और परमात्मप्रकाशमें कोई उल्लेखनीय शाब्दिक समानता भी नहीं है । पाँचवें, सावयधम्मदोहामें पञ्चमी और षष्ठीके एक वचनमें 'हु' आता है, जब कि परमात्मप्रकाशमें एकवचन और बहुवचन दोनोंमें 'हँ' आता है । अतः इस ग्रंथको जोइन्दुकृत माननेमें कोई भी प्रबल प्रमाण नहीं हैं । संभवतः इसकी भाषा तथा कुछ विचारोंकी साम्यताको देखकर किसीने जोइन्दुको इसका कर्ता लिख दिया होगा ।
देवसेन-निम्नलिखित आधारोंपर प्रो० हीरालालजीका मत है कि इसके कर्ता देवसेन है । १ 'क' प्रतिके अन्तिम पद्यमें 'देवसेनै उवदिट्ठ' आता है । २ देवसेनके भावसंग्रह और सावयधम्मदोहामें बहुत कुछ समानता है । पर० १० For Private & Personal Use Only
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