________________
योगीन्दुदेवविरचितः
[ दोहा ४७___अथ यस्य परमात्मनो ज्ञानं वल्लीवत् ज्ञेयास्तिखाभावेन निवर्तते न च शक्त्यभावेनेति कथयति
णेयाभावे विल्लि जिम थक्कइ णाणु बलेवि । मुक्कहँ जसु पय बिंबियउ परम-सहाउ भणेवि ।। ४७ ॥ ज्ञेयाभावे वल्ली यथा तिष्ठति ज्ञानं वलित्वा ।
मुक्तानां यस्य पदे बिम्बित परमस्वभावं भणित्वा ॥ ४७॥ णेयाभावे विल्लि जिम थकाइ णाणु वलेवि ज्ञेयाभावे वल्ली यथा तथा ज्ञानं तिष्ठति व्यावृत्त्येति । यथा मण्डपाधभावे वल्ली व्यावृत्त्य तिष्ठति तथा ज्ञेयावलम्बनाभावे ज्ञानं व्यावृत्त्य तिष्ठति न च ज्ञातृवशक्त्यभावेनेत्यर्थः। कस्य संबन्धि ज्ञानम् । मुकहं मुक्तात्मनां ज्ञानम् । कथंभूतम् । जसु पय बिंबियउ यस्य भगवतः पदे परमात्मस्वरूपे बिम्बितं प्रतिफलितं तदाकारेण परिणतम् । कस्मात् । परमसहाउ भणेवि परमस्वभाव इति भणिवा मला ज्ञात्ववेत्यर्थः । अत्र यस्येत्थंभूतं ज्ञानं सिद्धमुखस्योपादेयस्याविनाभूतं स एव शुद्धात्मोपादेय इति भावार्थः ॥४७॥
अथ यस्य कर्माणि यद्यपि सुखदुःखादिकं जनयन्ति तथापि स न जनितो न हृत इत्यभि
आगे जिस परमात्माका ज्ञान सर्वव्यापक है, उसके ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो ज्ञानसे न जाना जावे, सब ही पदार्थ ज्ञानमें भासते हैं, ऐसा कहते हैं-[यथा] जैसे मंडपके अभावसे [वल्ली] बेल (लता) [तिष्ठति] ठहरती है, अर्थात् जहाँ तक मंडप है, वहाँ तक तो चढती है और आगे मंडपका सहारा न मिलनेसे चढनेसे ठहर जाती है, उसी तरह [मुक्तानां] मुक्त जीवोंका [ज्ञानं] ज्ञान भी जहाँ तक ज्ञेय (पदार्थ) है, वहाँ तक फैल जाता है, [ज्ञेयाभावे] और ज्ञेयका अवलम्बन न मिलनेसे [बलेपि?] जाननेकी शक्ति होनेपर भी [तिष्ठति] ठहर जाता है, अर्थात कोई पदार्थ जाननेसे बाकी नहीं रहता, सब द्रव्य, क्षेत्र, काल और सब भावोंको ज्ञान जानता है, ऐसे तीन लोक सरीखे अनंते लोकालोक होवें, तो भी एक समयमें ही जान लेवे, [यस्य] जिस भगवान परमात्माके [पदे] केवलज्ञानमें [परमस्वभावं] अपना उत्कृष्ट स्वभाव सबके जाननेरूप [बिंबितं] प्रतिभासित हो रहा है, अर्थात् ज्ञान सबका अंतर्यामी है, सर्वाकार ज्ञानकी परिणति है, ऐसा [भणित्वा] जानकर ज्ञानका आराधन करो ।। भावार्थ-जहाँ तक मंडप वहाँ तक ही बेल (लता) की बढवारी है, और जब मंडपका अभाव हो, तब बेल स्थिर होकर आगे नहीं फैलती, लेकिन बेलमें विस्तार-शक्तिका अभाव नहीं कह सकते, इसी तरह सर्वव्यापक ज्ञान केवलीका है, जिसके ज्ञानमें सब पदार्थ झलकते हैं, वही ज्ञान आत्माका परम स्वभाव है, ऐसा जिसका ज्ञान है, वही शुद्धात्मा उपादेय है । यह ज्ञानानंदरूप आत्माराम है, वही महामुनियोंके चित्तका विश्राम (ठहरनेकी जगह) है ।।४७॥
आगे जो शुभ अशुभ कर्म हैं, वे यद्यपि सुख दुःखादिको उपजाते हैं, तो भी वह आत्मा किसीसे उत्पन्न नहीं हुआ, किसीने बनाया नहीं, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर गाथा-सूत्र कहते हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org