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-दोहा ८२ ]
परमात्मप्रकाशः मण्णइ मूदु विसेसु पुरुषो नपुंसकः स्त्रीलिङ्गोऽहं मन्यते मूढो विशेषं ब्राह्मणादिविशेषमिति । इदमत्र तात्पर्यम् । यनिश्वयनयेन परमात्मनो भिनानपि कर्मजनितान् ब्राह्मणादिभेदान् सर्वप्रकारेण हेयभूतानपि निश्चयनयेनोपादेयभूते वीतरागसदानन्दैकस्वभावे स्वशुद्धात्मनि योजयति संबद्धान् करोति । कोऽसौ कयंभूतः । अज्ञानपरिणतः स्वशुद्धात्मतत्त्वभावनारहितो मूहात्मेति ॥८१ ॥ अथ
तरुणउ बूढउ ख्यडउ सूरउ पंडिउ दिव्यु । खवणउ बंदउ सेवडउ मूढउ मण्णइ सव्वु ॥ ८२ ॥ तरुणः वृद्धः रूपवान् शूरः पण्डितः दिव्यः ।
क्षपणकः वन्दकः श्वेतपटः मूढः मन्यते सर्वम् ॥ ८२ ॥ तरुणउ बूढउ रूयडउ सूरउ पंडिउ दिव्वु तरुणो यौवनस्थोऽहं वृद्धोऽहं रूपस्यहं शूरः सुभटोऽहं पण्डितोऽहं दिव्योऽहम् । पुनश्च किंविशिष्टः । खवणउ वंदउ सेवडउ क्षपणको दिगम्बरोऽहं वन्दको बौद्धोऽहं श्वेतपटादिलिङ्गधारकोऽहमिति मृढात्मा सर्वं मन्यत इति । अयमत्र तात्पर्यार्थः । यद्यपि व्यवहारेणाभिनान् तथापि निश्चयेन वीतरागसहजानन्दैकस्वभावात्परमात्मनः भिन्नान् कर्मोदयोत्पभान् तरुणवृद्धादिविभावपर्यायान् हेयानपि साक्षादुपादेयभूते स्वशुद्धात्मतत्त्वे योजयति । कोऽसौ । ख्यातिपूजालाभादिविभावपरिणामाधीनतया परमात्मभावनाच्युतः सन् मूढात्मेति ।। ८२ ॥ अथकर्मजनित हैं, परमात्माके नहीं हैं, इसलिये सब तरह आत्मज्ञानीके त्याज्यरूप हैं तो भी जो निश्चयनयकर आराधने योग्य वीतराग सदा आनंदस्वभाव निज शुद्धात्मामें इन भेदोंको लगाता है, अर्थात् अपनेको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र मानता है, स्त्री, पुरुष, नपुंसक मानता है, वह कर्मोंका बंध करता है, वही अज्ञानसे परिणत हुआ निज शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे रहित हुआ मूढात्मा हैं, ज्ञानवान् नहीं है ||८१॥ ___ आगे फिर मूढके लक्षण कहते हैं-तरुणः] मैं जवान हूँ, [वृद्धः] बूढा हूँ [रूपस्वी] रूपवान् हूँ, [शूरः] शूरवीर हूँ, [पंडितः] पंडित हूँ, [दिव्यः] सबमें श्रेष्ठ हूँ, [क्षपणकः] दिगंबर हूँ, [वंदकः] बौद्धमतका आचार्य हूँ, [श्वेतपट:] और मैं श्वेताम्बर हूँ, इत्यादि [स] सब शरीरके भेदोंको [मूढः] मूर्ख [मन्यते] अपने मानता है । ये भेद जीवके नहीं हैं । भावार्थ-यद्यपि व्यवहारनयकर ये सब तरुण वृद्धादि शरीरके भेद आत्माके कहे जाते हैं, तो भी निश्चयनयकर वीतराग सहजानंद एक स्वभाव जो परमात्मा उससे भिन्न हैं । ये तरुणादि विभावपर्याय कर्मके उदयकर उत्पन्न हुए हैं, इसलिये त्यागने योग्य हैं, तो भी उनको साक्षात् उपादेयरूप निज शुद्धात्मतत्त्वमें जो लगाता है, अर्थात् आत्माके मानता है, वह अज्ञानी जीव बडाई प्रतिष्ठा धनका लाभ इत्यादि विभाव परिणामोंके आधीन होकर परमात्माकी भावनासे रहित हुआ मूढात्मा हैं, वह जीवके ही भाव मानता है ।।८२।।
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