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योगीन्दुदेवविरचितः
[ अ० १, दोहा ८६
दिभेदभिन्नपरमात्मोपलंभप्रतिपत्तेर्यथा यथा मोहो विगलति तथा तथा शुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं सम्यक्त्वं लभते । शुद्धात्मकर्मणोर्भेदज्ञानेन शुद्धात्मतत्त्वं मनुते जानातीति । अत्र यस्यैवोपादेयभूतस्य शुद्धात्मनो रुचिपरिणामेन निश्चयसम्यग्दृष्टिर्णातो जीवः, स एवोपादेय इति भावार्थः ।। ८५ ।।
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अत ऊर्ध्वं पूर्वोक्तन्यायेन सम्यग्दृष्टिर्भूला मिथ्यादृष्टिभावनायाः प्रतिपक्षभूतां यादृशीं भेदभावनां करोति तादृशीं क्रमेण सूत्रसप्तकेन विवृणोति
अप्पा गोरउ किण्डु ण वि अप्पा रन्तु ण होइ ।
अप्पा सुहमु वि थूलु ण वि णाणिउ जाणे जोइ ॥ ८६ ॥ आत्मा गौरः कृष्णः नापि आत्मा रक्तः न भवति ।
आत्मा सूक्ष्मोsपि स्थूलः नापि ज्ञानी ज्ञानेन पश्यति ॥ ८६ ॥
आत्मा गौरो न भवति रक्तो न भवति आत्मा सूक्ष्मोऽपि न भवति स्थूलोऽपि नैव । तर्हि किंविशिष्टः । ज्ञानी ज्ञानस्वरूपः ज्ञानेन करणभूतेन पश्यति । अथवा 'णाणिउ जाणइ जोईं' इति पाठान्तरं, ज्ञानी योऽसौ योगी स जानात्यात्मानम् । अथवा ज्ञानी ज्ञानस्वरूपेण आत्मा । कोऽसौ जानाति । योगीति । तथाहि — कृष्णगौरादिकधर्मान् व्यवहारेण जीवसंबद्धानपि तथापि शुद्धात्मनो भिन्नान् कर्मजनितान् हेयान् वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी स्वशुद्धात्मत तान् न योजयति संबद्धान करोतीति भावार्थः ॥ ८६ ॥ अथ
उससे मनुष्य होना कठिन है । मनुष्यमें भी आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, शुद्धात्माका उपदेश आदि मिलना उत्तरोत्तर बहुत कठिन हैं, और किसी तरह काकतालीय न्यायसे काललब्धिको पाकर सब दुर्लभ सामग्री मिलने पर भी जैन - शास्त्रोक्त मार्गसे मिथ्यात्वादिके दूर हो जानेसे आत्मस्वरूपकी प्राप्ति होते हुए, जैसा जैसा मोह क्षीण होता जाता है, वैसा वैसा शुद्ध आत्मा ही उपादेय है, ऐसा रुचिरूप सम्यक्त्व होता है । शुद्ध आत्मा और कर्मको जुदे जुदे जानता है । जिस शुद्धात्माकी रुचिरूप परिणामसे यह जीव निश्चयसम्यग्दृष्टि होता है, वही उपादेय है, यह तात्पर्य हुआ ॥८५॥
इसके बाद पूर्वकथित रीतिसे सम्यग्दृष्टि होकर मिथ्यात्वकी भावनासे विपरीत जैसी भेदविज्ञानकी भावनाको करता है, वैसी भेदविज्ञान - भावनाका स्वरूप क्रमसे सात दोहा-सूत्रों में कहते हैं -[ आत्मा ] आत्मा [ गौरः कृष्णः नापि ] सफेद नहीं हैं, काला नहीं है, [ आत्मा ] आत्मा [ रक्तः ] लाल [ न भवति ] नहीं है, [आत्मा ] आत्मा [सूक्ष्मः अपि स्थूलः नैव ] सूक्ष्म भी नहीं है, और स्थूल भी नहीं है, [ ज्ञानी ] ज्ञानस्वरूप है, [ ज्ञानेन ] ज्ञानदृष्टिसे [पश्यति ] देखा जाता है, अथवा ज्ञानी पुरुष योगी ही ज्ञानसे आत्माको जानता है । भावार्थ-ये श्वेत काले आदि धर्म व्यवहारनयकर शरीरके सम्बन्धसे जीवके कहे जाते हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर शुद्धात्मासे जुदे हैं, कर्मजनित हैं, त्यागने योग्य हैं । जो वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानी है, वह निज शुद्धात्मतत्त्वमें इन धर्मोंको नहीं लगाता, अर्थात् इनको अपने नहीं समझता है ॥ ८६ ॥
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