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योगीन्दुदेवविरचितः
[अ० १, दोहा ९९वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानेन परमात्मतत्वे ज्ञाते सति समस्तद्वादशाङ्गागमस्वरूपं ज्ञातं भवति । कस्मात् । यस्माद्राघवपाण्डवादयो महापुरुषा जिनदीक्षां गृहीला द्वादशाङ्गं पठित्वा द्वादशाङ्गाध्ययनफलभूते निश्चयरमत्रयात्मके परमात्मध्याने तिष्ठन्ति तेन कारणेन वीतरागस्खसंवेदनज्ञानेन निजात्मनि ज्ञाते सति सर्वं ज्ञातं भवतीति । अथवा निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नपरमानन्दसुखरसास्वादे जाते सति पुरुषो जानाति । कि जानाति । वेत्ति मम स्वरूपमन्यद्देहरागादिकं परमिति तेन कारणेनात्मनि ज्ञाते सर्वं ज्ञातं भवति । अथवा आत्मा कर्ता श्रुतज्ञानरूपेण व्याप्तिज्ञानेन करणभूतेन सर्वं लोकालोकं जानाति तेन कारणेनात्मनि ज्ञाते सर्व ज्ञातं भवतीति । अथवा वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तिसमाधिबलेन केवलज्ञानोत्पत्तिबीजभूतेन केवलज्ञाने जाते सति दर्पणे बिम्बवत् सर्वं लोकालोकस्वरूपं विज्ञायत इति हेतोरात्मनि ज्ञाते सर्व ज्ञातं भवतीति । अत्रेदं व्याख्यानचतुष्टयं ज्ञाखा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहत्यागं कृत्वा सर्वतात्पर्येण निजशुद्धात्मभावना कर्तव्येति तात्पर्यम् । तथा चोक्तं समयसारे – “जो पस्सर अप्पाणं अबद्ध पुढं अणग्णमविसेसं । अपदेसमुत्तमं परसह जिणसासणं सव्वं ।। " ।। ९९ ॥
अथैतदेव समर्थयति —
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स्वसंवेदनज्ञानकर अपने आत्माका जानना ही सार है, आत्माके जाननेसे सबका जानपना सफल होता है, इस कारण जिन्होंने अपना आत्मा जाना उन्होंने सबको जाना । अथवा निर्विकल्प - समाधिसे उत्पन्न हुआ जो परमानंद सुखरस उसके आस्वाद होनेपर ज्ञानी पुरुष ऐसा जानता है, कि मेरा स्वरूप जुदा है, और देह रागादिक मेरेसे दूसरे हैं, मेरे नहीं हैं, इसलिये आत्माके (अपने ) जाननेसे सब भेद जाने जाते हैं, जिसने अपनेको जान लिया उसने अपनेसे भिन्न सब पदार्थ जाने । अथवा आत्मा श्रुतज्ञानरूप व्याप्तिज्ञानसे सर्व लोकालोकको जानता है, इसलिये आत्माके जाननेसे सब जाना गया । अथवा वीतरागनिर्विकल्प परमसमाधिके बलसे केवलज्ञानको उत्पन्न (प्रगट) करके जैसे दर्पण में घट पटादि पदार्थ झलकते हैं, उसी प्रकार ज्ञानरूपी दर्पणमें सब लोक अलोक भासते हैं । इससे यह बात निश्चय हुई, कि आत्माके जाननेसे सब जाना जाता है । यहाँपर सारांश यह हुआ, कि इन चारों व्याख्यानोंका रहस्य जानकर बाह्य अभ्यंतर सब परिग्रह छोड़कर सब तरहसे अपने शुद्धात्माकी भावना करनी चाहिये । ऐसा ही कथन समयसारमें श्री कुन्दकुन्दाचार्यने किया है - 'जो परसइ' इत्यादि । इसका अर्थ यह है, कि जो निकट-संसारी जीव स्वसंवेदनज्ञानकर अपने आत्माको अनुभवता, सम्यग्दृष्टिपनेसे अपनेको देखता है, वह सब जैनशासनको देखता है, ऐसा जिनसूत्रमें कहा है । कैसा है वह आत्मा ? रागादिक ज्ञानावरणादिकसे रहित है, अन्यभाव जो नर नारकादि पर्याय उनसे रहित है, विशेष अर्थात् गुणस्थान मार्गणा जीवसमास इत्यादि सब भेदोंसे रहित है । ऐसे आत्माके स्वरूपको जो देखता है, जानता है, अनुभवता है, वह सब जिनशासनका मर्म जाननेवाला है ॥९९॥
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