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-दोहा ६९] परमात्मप्रकाशः
६९ न करोति । अत्राह शिष्यः । यदि शुद्धद्रव्याथिकलक्षणेन शुद्धनिश्चयेन मोक्षं च न करोति तर्हि शुद्धनयेन मोक्षो नास्तीति तदर्थमनुष्ठानं वृथा। परिहारमाह । मोक्षो हि बन्धपूर्वकः, स च बन्धः शुद्धनिश्चयेन नास्ति, तेन कारणेन बन्धप्रतिपक्षभूतो मोक्षः सोऽपि शुद्धनिश्चयेन नास्ति यदि पुनः शुद्धनिश्चयेन बन्धो भवति तदा सर्वदैव बन्ध एव । अस्मिन्नर्थे दृष्टान्तमाह । एकः कोऽपि पुरुषः शृङ्खलाबद्धस्तिष्ठति द्वितीयस्तु बन्धनरहितस्तिष्ठति यस्य बन्धभावो मुक्त इति व्यवहारो घटते, द्वितीयं प्रति मोक्षो जातो भवत इति यदि भण्यते तदा कोपं करोति । कस्माइन्धाभावे मोक्षवचनं कथं घटत इति । तथा जीवस्यापि शुद्धनिश्चयेन बन्धाभावे मुक्तवचनं न घटते इति । अत्र वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरतो मुक्तजीवसदृशः स्वशुद्धात्मोपादेय इति भावार्थः ॥ ६८॥ अथ निश्चयनयेन जीवस्योद्भवजरामरणरोगलिङ्गवर्णसंज्ञा नास्तीति कथयन्ति
अस्थि ण उन्भउ जर-मरणु रोय वि लिंग वि वण्ण । णियमि अप्पु वियाणि तुहँ जीवह एक वि सण्ण ॥ ६९॥ अस्ति न उद्भवः जरामरणं रोगाः अपि लिङ्गान्यपि वर्णाः ।
नियमेन आत्मन् विजानीहि त्वं जीवस्य एकापि संज्ञा ॥ ६९ ।। अत्थि ण उन्भउ जरमरणु रोय वि लिंग वि वण्ण अस्ति न न विद्यते । किं किं नास्ति । उन्भउ उत्पत्तिः जरामरणं रोगा अपि लिङ्गान्यपि वर्णाः णियमि वियाणि तुहं जीवहं एक वि सण्ण नियमेन निश्चयेन हे आत्मन् हे जीव विजानीहि बम् । कस्य नास्ति । अभावरूप मोक्ष है, वह भी शुद्धनिश्चयनयकर नहीं है । यदि शुद्धनिश्चयनयसे बंध होता, तो हमेशा बंधा ही रहता, कभी बंधका अभाव न होता । इसके बारेमें दृष्टांत कहते हैं-कोई एक पुरुष साँकलसे बँध रहा है, और कोई एक पुरुष बंध रहित हैं, उनमेंसे जो पहले बँधा था, उसको तो 'मुक्त' (छूटा) ऐसा कहना ठीक मालूम पडता है, और दूसरा जो बँधा ही नहीं, उसको यदि ‘आप छूट गये' ऐसा कहा जाय, तो वह क्रोध करे, कि मैं कब बँधा था, सो यह मुझे 'छूटा' कहता है । बँधा होवे, वह छूटे, इसलिये बंधेको तो मोक्ष कहना ठीक है, और बँधा ही न हो, उसे छूटे कैसे कह सकते हैं ? उसी प्रकार यह जीव शुद्धनिश्चयनयकर बँधा हुआ नहीं है, इस कारण मुक्त कहना ठीक नहीं है । बंध भी व्यवहारनयकर है, और मुक्ति भी व्यवहारनयकर है, शुद्धनिश्चयनयकर न बंध है, न मोक्ष है और अशुद्धनयकर बंध है, इसलिये बंधके नाशका यत्न भी अवश्य करना चाहिये । यहाँ यह अभिप्राय है, कि सिद्ध समान यह अपना शुद्धात्मा वीतराग निर्विकल्पसमाधिमें लीन पुरुषोंको उपादेय है, अन्य सब हेय हैं ॥६८॥ ___आगे निश्चयनयकर जीवके जन्म, जरा, मरण, रोग, लिंग, वर्ण और संज्ञा नहीं है, आत्मा इन सब विकारोंसे रहित है, ऐसा कहते हैं-आत्मन्] हे जीव आत्माराम, [जीवस्य] जीवके [उद्भवः न] जन्म नहीं [अस्ति] हैं, [जरामरणः] जरा (बुढापा) मरण [रोगाः अपि] रोग
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