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-दोहा ५९]
परमात्मप्रकाशः नेति । तद्यथा। जीवकर्मणोरनादिसंबन्धं कथयति
जीवहँ कम्मु अणाइ जिय जणियउ कम्मु ण तेण । कम्में जीउ वि जणिउ णवि दोहिँ वि आइ ण जेण ॥ ५९॥ जीवानां कर्माणि अनादीनि जीव जनितं कर्म न तेन ।
कर्मणा जीवोऽपि जनितः नैव द्वयोरपि आदिः न येन ॥ ५९॥ जीवहं कम्मु अणाइ जिय जणियउ कम्मु ण तेण जीवानां कर्मणामनादिसंबन्धो भवति हे जीव जनितं कर्म न तेन नीवेन । कम्में जीउ वि जणिउ णवि दोहिं वि आइ ण जेण कर्मणा कर्टभूतेन । जीवोऽपि जनितो न द्वयोरप्यादिन येन कारणेनेति । इतो विशेषः । जीवकर्मणामनादिसंबन्धः पर्यायसंतानेन बीजवृक्षवद्वयवहारनये संबन्धः कर्म तावत्तिष्ठति तथापि शुद्धनिश्चयनयेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावेन जीवेन न तु जनितं तथाविधजीवोऽपि स्वशुद्धात्मसंवित्त्यभावोपार्जितेन कर्मणा नरनारकादिरूपेण न जनितः कर्मात्मेति च द्वयोरनादित्वादिति । अत्रानादिजीवकर्मणोस्संबन्धव्याख्यानेन सदा मुक्तः सदा शिवः कोऽप्यस्तीति निराकृतमिति ___ ऐसे तीन प्रकारके आत्माका है कथन जिसमें ऐसे पहले महाधिकारमें द्रव्य-गुण-पर्यायके व्याख्यानकी मुख्यतासे सातवें स्थलमें तीन दोहा-सूत्र कहे । आगे आदर करने योग्य अतीन्द्रिय सुखसे तन्मयी जो निर्विकल्पभाव उसकी प्राप्तिके लिए शुद्ध गुण-पर्यायके व्याख्यानकी मुख्यतासे आठ दोहा कहते हैं । इनमें पहले चार दोहोंमें अनादि कर्मसंबंधका व्याख्यान और पिछले चार दोहोंमें कर्मके फलका व्याख्यान इस प्रकार आठ दोहोंका रहस्य है, उसमें प्रथम ही जीव और कर्मका अनादि कालका संबंध है, ऐसा कहते हैं-जीव] हे आत्मा, [जीवानां] जीवोंके [कर्माणि] कर्म [अनादीनि] अनादि कालसे हैं, अर्थात् जीव कर्मका अनादि कालका संबंध है, [तेन] उस जीवने [कर्म] कर्म [न जनितं] नहीं उत्पन्न किये, [कर्मणा अपि] ज्ञानावरणादि कर्मोंने भी [जीवः] यह जीव [नैव जनितः] नहीं उपजाया, [येन] क्योंकि [द्वयोः अपि] जीव कर्म इन दोनोंका ही [आदिः न] आदि नहीं है, दोनों ही अनादिके हैं ॥ भावार्थ-यद्यपि व्यवहारनयसे पर्यायोंके समूहकी अपेक्षा नये नये कर्म समय समय बाँधता है, नये नये उपार्जन करता है, जैसे बीजसे वृक्ष और वृक्षसे बीज होता है, उसी तरह पहले बीजरूप कर्मोंसे देह धारता है, देहमें नये नये कर्मोको विस्तारता हैं, यह तो बीजसे वृक्ष हुआ । इसी प्रकार जन्म-सन्तान चली आती है । परन्तु शुद्धनिश्चयनयसे विचारा जावे, तो जीव निर्मल ज्ञान दर्शनस्वभाव ही है । जीवने ये कर्म न तो उत्पन्न किये, और यह जीव भी इन कर्मोंने नहीं पैदा किया । जीव भी अनादिका है, ये पुद्गलस्कंध भी अनादिके हैं, जीव और कर्म नये नहीं है, जीव अनादिका कर्मोंसे बँधा है
और कर्मोंके क्षयसे मुक्त होता है । इस व्याख्यानसे जो कोई ऐसा कहते हैं, कि आत्मा सदा मुक्त है, कर्मोंसे रहित है, उनका निराकरण (खंडन) किया । ये वृथा कहते हैं, ऐसा तात्पर्य है । ऐसा
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