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-दोहा १२]
परमात्मप्रकाशः वारा भक्तिभरनमितोत्तमाङ्गाः सन्तः सर्वागमप्रश्नानन्तरं सर्वप्रकारोपादेयं शुद्धात्मानं पृच्छन्तीति । अत्र त्रिविधात्मस्वरूपमध्ये शुद्धात्मस्वरूपमुपादेयमिति भावार्थः ॥ ११ ॥
अथ त्रिविधात्मानं ज्ञात्वा बहिरात्मानं विहाय स्वसंवेदनज्ञानेन परं परमात्मानं भावय त्वमिति प्रतिपादयति
अप्पा ति-विहु मुणेवि लहु मूढउ मेल्लहि भाउ । मुणि सण्णाणे णाणमउ जो परमप्प-सहाउ ॥ १२॥ आत्मानं त्रिविधं मत्वा लघु मूढं मुश्च भावम् ।।
मन्यस्व स्वज्ञानेन ज्ञानमयं यः परमात्मस्वभावः ॥ १२॥ अप्पा तिविहु मुणेवि लहु मूढउ मेल्लहि भाउ हे प्रभाकरभट्ट आत्मानं त्रिविधं मत्वा लघु शीघ्रं मूढं बहिरात्मस्वरूपं भावं परिणामं मुश्च । मुणि सण्णाणे णाणमउ जो परमप्पसहाउ पश्चात् त्रिविधात्मपरिज्ञानानन्तरं मन्यस्व जानीहि । केन करणभूतेन । अन्तधर्मकी श्रद्धा, नवतत्त्वोंकी श्रद्धा, आगमका ज्ञान तथा संयम भाव ये व्यवहार रत्नत्रय है, इसीका नाम भेदरत्नत्रय है । इनमेंसे भेदरत्नत्रय तो साधन है और अभेदरत्नत्रय साध्य हैं ॥११॥ ___आगे तीन प्रकार आत्माको जानकर बहिरात्मपना छोड स्वसंवेदन ज्ञानकर तू परमात्माका ध्यान कर, ऐसा कहते हैं-[आत्मानं त्रिविधं मत्वा] हे प्रभाकरभट्ट, तू आत्माको तीन प्रकारका जानकर [मूढ़ भावं] बहिरात्म स्वरूप भावको [लघु] शीघ्र ही [मुञ्च] छोड, और [यः] जो [परमात्मस्वभावः] परमात्माका स्वभाव है, उसे [स्वज्ञानेन] स्वसंवेदनज्ञानसे अंतरात्मा होता हुआ [मन्यस्व] जान । वह स्वभाव [ज्ञानमयः] केवलज्ञानकर परिपूर्ण है ॥ भावार्थ-जो वीतराग स्वसंवेदनकर परमात्मा जाना था, वही ध्यान करने योग्य है । यहाँ शिष्यने प्रश्न किया था, कि जो स्वसंवेदन अर्थात् अपनेकर अपनेको अनुभवना इसमें वीतराग विशेषण क्यों कहा ? क्योंकि जो स्वसंवेदन ज्ञान होवेगा, वह तो रागरहित होवेगा ही । इसका समाधान श्रीगुरुने किया-कि विषयोंके आस्वादनसे भी उन वस्तुओंके स्वरूपका जानपना होता है, परन्तु रागभावकर दूषित है, इसलिये निजरसका आस्वाद नहीं है, और वीतराग दशामें स्वरूपका यथार्थ ज्ञान होता है, आकुलता रहित होता है । तथा स्वसंवेदनज्ञान प्रथम अवस्थामें चौथे पाँचवें गुणस्थानवाले गृहस्थके भी होता है, वहाँपर सराग देखनेमें आता है, इसलिये रागसहित अवस्थाके निषेधके लिये वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान ऐसा कहा है। रागभाव है, वह कषायरूप है, इस कारण जब तक मिथ्यादृष्टिके अनंतानुबंधी कषाय है, तब तक तो बहिरात्मा है, उसके तो स्वसंवेदन ज्ञान अर्थात् सम्यक्ज्ञान सर्वथा ही नहीं है, व्रत और चतुर्थ गुणस्थानमें सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधीके अभाव होनेसे सम्यग्ज्ञान तो हो गया, परंतु कषायकी तीन चौकडी बाकी रहनेसे द्वितीयाके चन्द्रमाके समान विशेष प्रकाश नहीं होता, और श्रावकके पाँचवें गुणस्थानमें दो चौकडीका अभाव है, इसलिये रागभाव कुछ कम हुआ, वीतरागभाव बढ गया, इस कारण स्वसंवेदनज्ञान भी प्रबल हुआ, परन्तु दो चौकडीके रहनेसे मुनिके समान प्रकाश नहीं हुआ । मुनिके तीन चौकडीका
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