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योगीन्दुदेवविरचितः
[ दोहा १३रात्मलक्षणवीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानेन। कं जानीहि । यं परमात्मस्वभावम् । किंविशिष्टम् । ज्ञानमयं केवलज्ञानेन निवृत्तमिति । अत्र योऽसौ स्वसंवेदनज्ञानेन परमात्मा ज्ञातः स एवोपादेय इति भावार्थः। स्वसंवेदनज्ञाने वीतरागविशेषणं किमर्थमिति पूर्वपक्षः, परिहारमाह-विषयानुभवरूपस्वसंवेदनज्ञानं सरागमपि दृश्यते तनिषेधार्थमित्यभिप्रायः ॥ १२ ॥ अथ त्रिविधात्मसंज्ञां बहिरात्मलक्षणं च कथयति
मूदु वियक्खणु बंभु परु अप्पा ति-विहु हवेइ ।
देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूदु हवेइ ॥ १३ ॥ अभाव है, इसलिये रागभाव तो निर्बल हो गया, तथा वीतरागभाव प्रबल हुआ, वहाँपर स्वसंवेदनज्ञानका अधिक प्रकाश हुआ, परंतु चौथी चौकडी बाकी है, इसलिये छठे गुणस्थानवाले मुनि सरागसंयमी हैं । वीतरागसंयमीके जैसा प्रकाश नहीं है । सातवें गुणस्थानमें चौथी चौकडी मंद हो जाती है, वहाँपर आहार-विहार क्रिया नहीं होती, ध्यानमें आरूढ रहते हैं, सातवेंसे छठे गुणस्थानमें आवें, तब वहाँपर आहारादि क्रिया है, इसी प्रकार छठ्ठा सातवाँ करते रहते हैं, वहाँपर अंतर्मुहूर्तकाल है । आठवें गुणस्थानमें चौथी चौकडी अत्यन्त मंद हो जाती है, वहाँ रागभावकी अत्यन्त क्षीणता होती है, वीतरागभाव पुष्ट होता है, स्वसंवेदनज्ञानका विशेष प्रकाश होता है, श्रेणी मांडनेसे शुक्लध्यान उत्पन्न होता है। श्रेणीके दो भेद हैं, एक क्षपक, दूसरी उपशम । क्षपकश्रेणीवाले तो उसी भवसे केवलज्ञान पाकर मुक्त हो जाते हैं, और उपशमवाले आठवें नवमें दसवेंसे ग्यारहवाँ स्पर्शकर पीछे पड जाते हैं, सो कुछ-एक भव भी धारण करते हैं, तथा क्षपकवाले आठवेंसे नवमें गुणस्थानमें प्राप्त होते हैं, वहाँ कषायोंका सर्वथा नाश होता है, एक संज्वलनलोभ रह जाता है, अन्य सबका अभाव होनेसे वीतराग भाव अति प्रबल हो जाता है, इसलिये स्वसंवेदनज्ञानका बहुत ज्यादा प्रकाश होता है, परंतु एक संज्वलनलोभ बाकी रहनेसे वहाँ सरागचरित्र ही कहा जाता है । दशवें गुणस्थानमें सूक्ष्मलोभ भी नहीं रहता, तब मोहकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके नष्ट हो जानेसे वीतरागचारित्रकी सिद्धि हो जाती है । दशवेंसे बारहवेंमें जाते हैं, ग्यारहवें गुणस्थानका स्पर्श नहीं करते, वहाँ निर्मोह वीतरागीके शुक्लध्यानका दूसरा पाया (भेद) प्रगट होता है, यथाख्यातचारित्र हो जाता है । बारहवेंके अन्तमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय इन तीनोंका भी विनाश कर डाला, मोहका नाश पहले ही हो चुका था, तब चारों घातियाकर्मोंके नष्ट हो जानेसे तेरहवें गुणस्थानमें केवलज्ञान प्रगट होता है, वहाँपर ही शुद्ध परमात्मा होता है, अर्थात् उसके ज्ञानका पूर्ण प्रकाश हो जाता है, निःकषाय है । वह चौथे गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थानतक तो अंतरात्मा है, उसके गुणस्थान प्रति चढती हुई शुद्धता है, और पूर्ण शुद्धता परमात्माके है, यह सारांश समझना ॥१२॥
तीन प्रकारके आत्माके भेद हैं, उनमेंसे प्रथम बहिरात्माका लक्षण कहते हैं-[मूढः] मिथ्यात्व रागादिरूप परिणत हुआ बहिरात्मा, [विचक्षणः] वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानरूप परिणमन
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