________________
१३१
प्रस्तावनाका हिंदी सार
और एक कन्नडटीका परमात्मप्रकाशपर दूसरी कन्नडटीका-यहाँ परमात्मप्रकाशकी दूसरी कन्नडटीकाका परिचय दिया जाता है । इस टीकाके समय तथा कर्ताके बारेमें हम कोई बात नहीं जान सके । प्रतिके अंतमें लिखा है-"मुनिभद्रस्वामीके चरण शरण हैं।" इससे इतना पता चलता है कि इस कन्नडटीकाका रचयिता या इस प्रति अथवा इस प्रतिकी मूल प्रतिका लेखक मुनिभद्रस्वामीका शिष्य था । ___ इस टीकाका परिचय-'क' टीकाकी तरह इस टीकामें भी दोहोंका केवल शब्दार्थ दिया है; किन्तु इस टीकाकी अपेक्षा 'क' टीकामें मूलका अनुसरण वगैरह अधिक तत्परतासे किया गया है । बिना नामकी इन टीकाओंके देखनेसे पता चलता है कि धार्मिक जैनसाधुओं और गृहस्थोंमें परमात्मप्रकाश कितना अधिक प्रसिद्ध था। ऐसा मालम होता है कि बहतसे नये अभ्यासी अपने अध्यापकसे दोहोंका अर्थ समझ लेनेके बाद अपनी मातृभाषामें उनके शब्दार्थ लिख लेते थे । ___ अन्य टीकाओंके साथ इस टीकाकी तुलना-'क' प्रतिकी टीका, ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीका और मलधारि बालचंद्रकी कन्नडटीकाके साथ इसकी तुलना करनेपर मैं इस निर्णयपर पहुँचा हूँ कि यद्यपि इसके पाठ 'क' टीका आदिके पाठोंसे बहत मिलते जलते हैं तथापि यह टीका ब्रह्मदेवकी बहत कछ ऋणी है । यतः इस टीकामें केवल शब्दार्थ दिया है, अतः ब्रह्मदेवके अतिरिक्त वर्णन इसमें नहीं मिलते । 'क' टीका और इस टीकाकी समानताको देखते हुए यह संभव है कि इस टीकाके कर्ताने 'क' टीकासे भी सहायता ली हो । मैंने इस टीकामें ऐसी कोई मौलिक अशुद्धियाँ और पाठान्तर नहीं देखे, जिनके आधारपर इसे ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीकासे स्वतंत्र कहा जा सके ।
इस टीकाका समय-ऊपरकी तुलनासे यह स्पष्ट है कि यह टीका ब्रह्मदेवसे और संभवतः मलधारि बालचंद्रसे भी बादकी हैं। यदि इसके कर्ता मुनिभद्रके शिष्य हैं, और यदि यह मुनिभद्र वही हैं जिनकी मृत्युका उल्लेख ई० सन् १३८८ के लगभगके उद्री शिलालेखमें पाया जाता है; तो इस टीकाकी रचना ईसाकी १४ वीं शताब्दीके अन्तिम भागमें हो सकती है । ऐसा मालूम होता है कि मुनिभद्रके अनेक प्रसिद्ध शिष्य थे, जिनकी मृत्युका उल्लेख कुछ शिलालेखोंमें पाया जाता है ।
पं० दौलतरामजीकृत भाषाटीका पं० दौलतरामजी और उनकी भाषाटीका-पं० दौलतरामजीकी भाषाटीका, जो इस संस्करणमें मुद्रित है, उनकी भाषाका आधनिक हिन्दीमें परिवर्तित रूप है। दौलतरामजीकी भाषा. जो संभवतः उनके समयमें उनकी जन्मभूमिमें प्रचलित थी, आधुनिक हिन्दीसे भिन्न है । इस विचारसे कि जैनगृहस्थों और साधुओंको यह विशेष उपयोगी होगी, पं० मनोहरलालजीने उसे आधुनिक हिंदीका रूप दे दिया है । मामूली संशोधनके साथ यही रूपान्तर इस दूसरे संस्करणमें छपा है । यहाँ मैं दौलतरामजीके अनुवादका कुछ अंश उद्धृत करता हूँ, इससे पाठक उनकी भाषाका अनुमान कर सकेंगे___ “बहुरि तिनि सिद्धिनिके समूहिकू मैं बन्दू हूँ। जे सिद्धिनिके समूहि निश्चयनयकरि अपने स्वरूप विषे तिष्ठे हैं, अरि विवहारिनयकरि सर्व लोकालोककू निसंदेहपणे प्रत्तक्ष देखे हैं । परन्तु परिपदार्थनि विषै तन्मयी नाहीं, अपने स्वरूपविषै तन्मयी हैं। जो परपदार्थनि विषै तन्मयी होई तो पराए सुख दुखकरि आप सुखी दुखी होई, सो कदापि नाहीं । विवहारिनयकरि स्थूल सूक्ष्म सकलिकू केवलिज्ञानि करि प्रत्तक्ष निसन्देह जानै हैं । काहू पदार्थहँ रागि द्वेष नाहीं । रागिके हेतुकरि जो काहुँको जाने तो राग द्वेषमई होय, सो इह बडा दूषण है । तातें यही निश्चय भया जो निश्चयकरि अपने स्वरूप विषै तिष्ठै हैं, पर विर्षे नाहीं । अरि अपनी ज्ञायक शक्ति करि सविकू प्रत्तक्ष देखे हैं जानै हैं । जो निश्चयकर अपने स्वरूप विषै निवास कह्या सो अपना स्वरूप ही आराधिवे योग्य है यह भावार्थ है ॥५॥"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org