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परमात्मप्रकाश
अपभ्रंश भाषाकी मोहकता - अपभ्रंश पद्य कोमलता और माधुर्यसे परिपूर्ण होते हैं । अपभ्रंशमें नये नये छन्दोंकी कमी नहीं है, किन्तु ये छन्द मात्राछन्द होते हैं, और सरलतासे गाये जा सकते हैं । अतः अधिक नहीं तो छठी शताब्दीमें, अपभ्रंशका जनसाधारणकी कविताका माध्यम होना कोई अचरजकी बात नहीं हैं । यह कहा जाता है कि वलभीके गृहसेनने, ई० ५५९ से ५६९ तकके जिनके स्मारकलेख पाये जाते हैं, संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंशमें पद्य रचना की थी । उद्योतनसूरि (७७८ ई०) ने भी अपभ्रंशका बहुत कुछ गुण-गान किया हैं, और भाषाओंके सम्बन्धमें उनकी आलोचना एक महत्त्वकी वस्तु है । उनके विचारसे लम्बे समास, अव्यय, उपसर्ग, विभक्ति, वचन और लिङ्गकाठिन्यसे पूर्ण संस्कृतभाषा दुर्जनके हृदयकी तरह दुरूह हैं, किन्तु प्राकृत, सज्जनोंके वचनकी तरह आनन्ददायक है । यह अनेक कलाओंके विवेचनरूपी तरंगोंसे पूर्ण सांसारिक अनुभवोंका समुद्र हैं, जो विद्वानोंसे मथन किये जानेपर टपकनेवाली अमृतकी बूँदोंसे भरा है। यह ( अपभ्रंश ) शुद्ध और मिश्रित संस्कृत तथा प्राकृत शब्दोंका समानुपातिक एवं आनन्ददायक सम्मिश्रण है । यह कोमल हो या कठोर, बरसाती पहाड़ी नदियोंकी तरह इसका प्रवाह बेरोक हैं, और प्रणय- कुपिता-नायिकाके वचनोंकी तरह यह शीघ्र ही मनुष्यके मनको वशमें कर लेती हैं । उद्योतनसूरि स्वंय उच्चकोटिके ग्रन्थकार थे, उन्होंने जटिलाचार्य, रविषेण आदि संस्कृतकवियोंकी बडी प्रशंसा की है। अपभ्रंश भाषाके प्रति उनके ये उद्गार स्पष्ट बतलाते हैं कि ईसाकी आठवीं शताब्दी तक वह पद्य रचनाका एक आकर्षक माध्यम समझी जाती थी ।
परमात्मप्रकाशके ऋणी हेमचंद्र उपलब्ध प्राकृत व्याकरणोंमें, हेमचन्द्रके व्याकरणमें अपभ्रंशका पूरा विवेचन मिलता हैं । उनके विवेचनकी विशेषता यह है कि वे अपने नियमोंके उदाहरणमें अनेक पद्य उद्धृत करते हैं। बहुत समय तक उनके द्वारा उद्धृत पद्योंके स्थलोंका पता नहीं लग सका था। डॉ० पिशलका कहना था कि सतसई जैसे किसी पद्य संग्रहसे वे उद्धृत किये गये हैं । किन्तु पद्योंकी भाषा और विचारोंमें अंतर होनेसे यह निश्चित है कि वे किसी एक ही स्थानसे नहीं लिये गये हैं। मैंने यह बतलाया था कि हेमचन्द्रने परमात्मप्रकाशसे भी कुछ पद्य लिये हैं । वे पद्य निम्न प्रकार हैं :
१. सूत्र ४-३८९ के उदाहरणमें
संता भोग जु परिहरइ तसु कंतहो बलि कीसु । तसु दइवेण वि मुंडियउँ जसु खल्लिहडउँ सीसु ॥ परमात्मप्रकाशमें यह पद्य (२-१३९) इस प्रकार हैं
संता विसय जु परिहरइ बलि किजाउँ हउँ तासु । सो दइवेण जि मुंडियउ सीसु खडिल्लउ जासु ॥
यदि सूत्र और उसकी व्याख्याको देखा जावे तो 'किज्जउँ' के स्थानमें 'किस' का परिवर्तन समझमें ठीक ठीक आ जाता है । क्योंकि 'किज्जउँ' एक वैकल्पिक रूप है, और उसका उदाहरण दिया गया है - " बलि जिउँ सुअणस्सु ।”
२. सूत्र ४-४२७ में
जिब्भिंदिउ नायगु वसि करहु जसु अधिन्नइँ अन्नई । मूलि विणट्ठइ तुंबिणिहे अवसें सुक्कहि पणई ॥ कुछ भेदोंके होते हुए भी, इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह दोहा परमात्मप्रकाशके २-१४० का ही रूपान्तर इस प्रकार है
जो
पंच णायकु वसि करहु जेण होंति वसि अण्ण । मूल विणट्ठइ तरुवरहँ अवसइँ सुक्कहि पण्ण ॥
इस दोहे में कुछ परिवर्तन तो सूत्रके नियमोंके उदाहरण देनेके लिये किये गये हैं । तथा परमात्मप्रकाशमें इन दोनों दोहोंकी क्रमागत संख्या भी स्खलित नहीं हैं, और यदि इससे कोई नतीजा निकालना संभव है, तो वह यह है कि हेमचन्द्र परमात्मप्रकाशसे ही इन पद्योंको उद्धृत किया है ।
३. सूत्र ४-३६५ में
आयहो दढकलेवरहो जं वाहिउ तं सारु । जइ उट्ठब्भइ तो कुहइ अह उज्झइ तो छारु ॥
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