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[30] सकता है, किन्तु 'त्वमहं सिना प्राक् चाकः'२/१/१२ सूत्र में प्राक् चाकः' शब्द को इस न्याय का माना गया है, अतः 'एतदश्च-१/३/४६ सूत्र में 'अनक' शब्द रखने का कारण बताते हुए आचार्यश्री ने कहा है - 'एषक: करोति, सको याति' 'तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते' इति साकोऽपि प्राप्तिरिति प्रतिषेधः ।
इस प्रकार सिद्धहेमबृहवृत्ति में सूत्रकार-वृत्तिकार आचार्य श्रीहेमचंद्रसूरिजी ने स्वयं भिन्न भिन्न न्यायों की प्रवृत्ति का निर्देश किया है।
सिद्धहेमबृहद्वृत्ति में ही कुछेक न्यायों की चर्चा निम्नोक्त रूप से है - प्रस्यैषैष्योढोढ्यूहे स्वरेण १/२/ १४ सूत्र की बृहद्वृत्ति में 'यस्मिन् प्राप्ते यो विधिरारभ्यते स तस्य बाधको भवति ।' न्याय प्राप्त है, जबकि 'न्यायसंग्रह' में 'येन नाप्राप्ते यो विधिरारभ्यते स तस्यैव बाधको भवति' स्वरूप में है। इसी न्याय से प्रस्तुत
१/२/१४ सूत्र केवल 'उपसर्गस्याऽनिणेधेदोति' १/२/१९ का ही बाध करता है किन्तु 'ओमाङि १/२/१८ सूत्र का बाध नहीं करता है।
इसी सूत्र में ही 'प्रेषते, प्रेष्यते, प्रोढवान्' इत्यादि प्रयोग की सिद्धि करने के लिए 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' न्याय का निर्देश किया गया है।
'स्वरे वाऽनक्षे'१/२/२९ सूत्र की बृहद्वत्ति में बताया गया है कि 'हे चित्रगवुदकमित्यत्र तु लाक्षणिकत्वाद गो शब्दस्य न भवति ।' अर्थात् 'हे चित्रगु उदकम्' प्रयोग में 'चित्रगु' शब्दस्थित 'गु', 'गो' शब्द सम्बन्धित है किन्तु गौण और लाक्षणिक होने से उसके 'उ' का 'अव' आदेश नहीं होगा । 'वाऽत्यसन्धिः' १/२/३१ और 'ओदन्तः' १/२/३७ सूत्र की बहवृत्ति में भी ऐसा बताया गया है। ऐसे स्थानों पर न्याय के एक ही अंश द्वारा संपूर्ण न्याय को सूचित किया गया है।
'स्वैर-स्वैर्यक्षौहिण्याम्' १/२/१५ सूत्र की बृहद्वृत्ति में 'स्वैरिणी' शब्द की सिद्धि करते हुए आचार्यश्री ने कहा है कि सूत्र में केवल 'स्वैरिन्' शब्द का ही ग्रहण है तथापि 'नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्' न्याय से 'स्वैरिणी' शब्द का भी इसी सूत्र में समावेश हो जायेगा।
ऊपर बताया ठीक उसी प्रकार से ही शब्दमहार्णवन्यास अर्थात् बहन्यास में भी विभिन्न न्यायों का निर्देश किया गया है किन्तु न्यास में विशेष रूप से उसी उसी न्यायों की प्राप्ति या निषेध या ज्ञापकत्व की चर्चा भी की गई है।
२. शब्दमहार्णव( बृहन् )न्यास में प्राप्त कुछेक न्यायों की चर्चा -:
'लोकात्' १/१/३ सूत्र के शब्दमहार्णवा बृहत् )न्यास में बताया गया है कि वनानि' प्रयोग में 'शसोऽता'१/४/४९ का बाध करके 'नपुंसकस्य शिः' १/४/५५ पर होने से 'जस्' का 'शि' आदेश ही होगा । परकार्य से भी नित्यकार्य बलवान होने से 'स्योन' प्रयोग में परकार्य स्वरूप गुण का बाध करके नित्य 'ऊट' ही होगा, यहाँ 'सिव्' धातु से 'प्या-धा-पन्यनि'- (उणादि-२५८) से 'न' प्रत्यय होने पर 'सिव + न - सि + ऊ + न - स्य् + ऊ + न - स्य् + ओ + न = स्योन' होगा ।
'ज्ञाया ओदनो ज्ञौदनस्तमिच्छति' अर्थ में 'क्यन्' होकर उससे 'सन्' प्रत्यय करने पर 'ज्ञा ओदन य स' होगा । यहाँ 'द्वित्व' नित्य है, तथापि 'औत्व' अन्तरङ्ग होने से 'नित्यादन्तरङ्गम्' न्याय से 'औत्व' प्रथम होगा और 'जुज्ञौदनीयिषति' रूप सिद्ध होगा ।
'गार्गीया:' प्रयोग की सिद्धि में 'अन्तरङ्गाच्चानवकाशम्' न्याय की प्रवृत्ति बतायी गई है। गर्गस्यापत्यानि तेषामिमे छात्राः', यहाँ 'दोरीयः' ६/३/३२ से होनेवाले 'इय' के विषय में 'गर्गादेर्यञ्'६/१/४२ से 'गर्ग यञ्' होगा, तो 'बहुष्वस्त्रियाम्' ६/१/१२४ से या 'यञिञः'६/१/१२६ से 'य' के लुप् की प्राप्ति होगी, तभी 'न प्राग जितीये स्वरे'६/१/१३५ अनवकाश हो जायेगा, अत: 'यजिञः'६/१/१२६ का बाध करके 'न प्राग जितीये स्वरे' ६/१/१३५ की ही प्रवृत्ति होगी ।
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