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विषय
पृ.सं.
विषय
पृ.सं.
पहला अधिकार (१-१७) मंगलाचरण अरहन्सों का स्वरूप सिखों का स्वरूप आचार्य का स्वरूप उपाध्याय का स्वरूप साधु का स्वरूप पूज्यत्व का कारण परमेष्ठी के स्वरूप का उपसंहार परत तथा विदेह क्षेत्रस्थ तीर्थकर जिनबिय तथा जिनवाणी दव्य चतुष्टय की अपेक्षा नमस्कार अरहन्सादिकों से प्रयोजनसिद्धि दर्शन-स्मरण से कार्यों की शिथिलता अरहन्तादि से सांसारिक प्रयोजन की सिद्धि अरहन्तादि ही परम मंगल हैं मंगलाचरण करने का कारण ग्रन्थ की प्रामाणिकता और आगम-परम्परा पहावीर से द्वादशांग का उद्भव तथा
अंगश्रुत की परम्परा अन्धकार का आगमाभ्यास और ग्रन्थरचना
का निश्चय असत्यपदरचना का प्रतिषेध बाँचने-सुनने योग्य शास्त्र वक्ता का स्वरूप श्रोता का स्वरूप 'मोक्षमार्ग-प्रकाशक' नाम की सार्थकता प्रस्तुत ग्रन्थ की आवश्यकता
* दूसरा अधिकार (१८-३८)
संसार अवस्था का स्वरूप दुःख का मूल कारण : कर्मबन्धन कर्मबन्धन का कारण जीव और कर्मों को मित्रता कर्म के आठ भेद और घातिया कों
का प्रभाव अधातिया कमों का प्रभाव नूतन बन्ध विचार स्वभाव बन्ध का कारण नहीं है
औपाधिक भाव ही नवीन बन्ध के कारण हैं। योग और उससे होने वाले प्रकृतिवन्ध,
प्रदेशवन्ध कषाय से स्थिति और अनुभाग जड़ पुद्गल परमाणुओं का यथायोग्य
प्रकृतिमा परिणमन भावों से कर्मों की पूर्ववत अवस्था
का परिवर्तन कर्मों के फलदान में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध द्रव्यकर्म और भावकर्म का स्वरूप शरीर की नोकर्म अवस्था और इसकी प्रवृत्ति नित्यनिगोद और इतर निगोद कम्यन्धन रूप रोग से जीव की अवस्था मतिज्ञान की प्रवृत्ति श्रुतज्ञान अवधिज्ञान की प्रवृत्ति और उसके भेद ज्ञान-दर्शन की पराधीनता में कर्म ही
निमित्त है मोह का उदय और मिथ्यात्व का स्वरूप चारित्रमोह से कषायभावों की प्रवृत्ति कषायों के उत्तरभेट और उनका कार्य