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मेक मंदर पुराण
तेरहवां अध्याय
समवसरण वर्णन मेरु और मंदर दोनों ने जब अपने नेत्रों से दूर से ही समवसरण को देखा तब वे दोनों हाथी से उतर कर पैरों से चलकर द्वादश योजन विस्तार वाले उस समवसरण में पहुंचे। समवसरण का उत्सेध पांच हजार धनुष था। बीस हजार सोपान (सीढियां) थे। समवसरण की प्रथम भूमि प्रासाद चत्य भूमि में चलकर चारों महा दिशाओं में चार मार्ग थे। उनमें से प्रथम मार्ग में स्थित मानस्तंभ को प्रणाम पूर्वक प्रदक्षिणा देकर चले । इसी प्रकार अन्य तीन मानस्तंभों को प्रणाम पूर्वक प्रदक्षिणा देकर मान कषाय को छोड़कर समवसरण के अन्दर प्रवेश कर वहाँ रही हुई खातिका का घुटन प्रमाण जल समुद्र की तरह देखा। उस खातिका में समभूमि थी। और उस खातिका में फूल लता आदि बहुत चीजें थी। इस प्रकार द्वितीय भूमि को देखने के अनंतर गोपुर द्वार के अन्दर जाकर तीसरे कोट को देख लिया। वह लताभूमि थी। वहां उदेतरवेदी और गोपुर द्वार में प्रवेश कर आगे भीतर रहने वाली वनभूमि, रहा हुया चैत्य वृक्ष और स्तूप आदि और मार्ग में मिलने वाली नाटकशाला आदि देखकर उसके अन्दर रहा हुआ प्रीतिकर गोपुर
और वेदी को देखकर और भीतर जाकर पांचवीं ध्वजभमि देखी। जिसमें दस । चिन्हों सहित ध्वजाएं थीं। ध्वजभूमि देखकर अन्त में रहे हुए कल्याणतर वेदी और गोपुर के दर्शन कर उसके अन्दर छठा प्राकार कल्पवृक्ष भूमि और वहां के रहने वाले मुनि मादि महाराजों को प्रानन्द से नमस्कार कर आगे चला । फिर मध्य में आने वाली गृहांगरण भूमि में रहने वाले स्तूपों को देख कर नमस्कार कर और भी वहां विद्यमान जयास्त्र व मंडप व महोदय मंडप देखा । इस प्रकार देखकर सप्त प्राकारों को क्रम से देखकर इसके आगे रहने वाले लक्ष्मीवर मंडप में गोपुर द्वार से घुसकर यहां रहने वाले द्वादश सभा के गणों को देखकर अनंतर मध्य में स्थित चक्रपीठ, त्रिमेखलापीठ के प्रथम पीठ में चढ़कर प्रदक्षिणा करके अनन्तर द्वितीय पीठ ध्वजपीठ के दर्शन करके अनंतर तृतीय पीठ गंधकुटी मंडप में सिंहपीठ ऊपर चतुर्मुख धारण किये हुए अष्टप्रातिहार्य (छत्रत्रय, अशोक वृक्ष, कुंदुभि, प्रभामंडल, पुष्प वृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, सिंहासन) छत्रत्रय विभूषित चामर आदि ढोरते हुए कोटि सूर्यचंद्र प्रकाश को भी जीतकर प्रकाशित हुए । अनंत ज्ञानादि चतुष्टय मंडित विमलनाथ तीर्थंकरके दिव्य रूप को देखकर आनंद से उनकी स्तुति गुणस्तुति, वस्तुस्तुति करके गणधर कोष्ठ में जाकर दीक्षा देने की प्रार्थना की। सर्वसंघ का परित्याग कर जिन दीक्षा लेकर निरतिचार सम्यक् चारित्र को पालन करके सप्त ऋद्धि से युक्त श्रुत केवली हुआ। तत्पश्चात् लोक स्वरूप, ज्ञान प्रमाण, मिथ्यात्वस्वरूप, कर्मास्रव के कारण बने हुए संसार स्वरूप और मोक्षस्वरूप प्रादि को अपने श्रु तज्ञान के बल से बियालीस परमागम को बनाकर अपने मुख से सब लोगों को उपदेश दिया।
श्री विमलनाथ तीर्थंकर के मेरु मंदर आदि गणधर पचपन थे। पूर्वधारी मुनि एक हजार सौ थे। अवधिज्ञानी मुनि चार हजार नव्वे थे। विक्रियाऋद्धि प्राप्त मुनि
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