________________
महावीर वाणी भाग 2 जैसे फूल से गंध बहती है । राह निर्जन हो तो भी बहती है। कोई न निकले तो भी बहती है। जैसे दीये से रोशनी बहती है। कोई न हो देखनेवाला तो भी बहती है।
पहले तरह के प्रेम में कोई देनेवाला हो, तो बहता है। दूसरे तरह के प्रेम में कोई लेनेवाला हो, तो बहता है। तीसरे तरह के प्रेम में जिसको हमने करुणा कहा है, कोई भी न हो, न लेनेवाला, न देनेवाला, तो भी बहता है; स्वभाव है ।
बुद्ध अकेले बैठे हैं तो भी करुणापूर्ण हैं। कोई आ गया तो भी करुणापूर्ण हैं। कोई चला गया तो भी करुणापूर्ण हैं।
पहला प्रेम मांग करता है कि मेरे अनुकूल जो है वह दो, तो मेरे प्रेम को मैं दूंगा। दूसरा प्रेम अनुकूल की मांग नहीं करता, लेकिन जहां प्रतिकूल होगा वहां से हट जायेगा। तीसरा प्रेम, प्रतिकूल हो, तो भी नहीं हटेगा।
मैं दूं... पहले प्रेम में आप भी लौटायें तो ही टिकेगा। दूसरे प्रेम में आप न लौटायें, सिर्फ लेने को राजी हों तो भी टिकेगा। तीसरे प्रेम में आप द्वार भी बंद कर लें, लेने को भी राजी न नाराज भी हो जाते हों, क्रोधित भी होते हों, तो भी बहेगा । तीसरा प्रेम अबाध है, उसे कोई बाधा नहीं रोक सकती। उसे लेनेवाला भी नहीं रोक सकता। वह बहता ही रहेगा। वह अपने को लेने से रोक सकता है, लेकिन प्रेम की धारा को नहीं रोक सकता । उसको हमने करुणा कहा है।
करुणा प्रेम का परम रूप है ।
पहला प्रेम, शरीर से बंधा होता है। दूसरा प्रेम, मन के घेरे में होता है। तीसरा प्रेम, आत्मा के जीवन में प्रवेश कर जाता है । ये हमारे तीन घेरे हैं— शरीर का, मन का, आत्मा का ।
शरीर से बंधा हुआ प्रेम यौन होता है मूलतः । प्रेम सिर्फ आसपास चिपकाये हुए कागज के फूल होते हैं। दूसरा प्रेम मूलतः प्रेम होता है। उसके आसपास शरीर की घटनाएं भी घटती हैं, क्योंकि मन शरीर के करीब है। तीसरे प्रेम में शरीर बहुत दूर हो जाता है, बीच में मन का विस्तार हो जाता है, शरीर से कोई संबंध नहीं रह जाता। तीसरा प्रेम शुद्ध आत्मिक है ।
एक प्रेम है शारीरिक, बंधनवाला। दूसरा प्रेम है शुद्ध मानसिक, निर्बंध, तीसरा प्रेम है शुद्ध आत्मिक । न बंधन है, न अबंधन है। न लेने का भाव है, न देने का भाव है। तीसरा प्रेम है स्वभाव ।
बुद्ध से कोई पूछे, महावीर से कोई पूछे कि क्या आप हमें प्रेम करते हैं, तो वे कहेंगे कि नहीं। वे कहेंगे, हम प्रेम हैं, करते नहीं हैं । करते तो वे लोग हैं जो प्रेम नहीं हैं। उन्हें करना पड़ता है, बीच-बीच में करना पड़ता है। लेकिन जो प्रेम ही है, उसे करना नहीं पड़ता, करने का खयाल ही नहीं उठता। करना तो हमें उन्हीं चीजों को पड़ता है— जो हम नहीं हैं। करना अभिनय है - होना – तो डूइंग और बीइंग का, करने और होने का फर्क है। करते हम वह हैं, जो हम हैं नहीं। मां कहती है, मैं बेटे को प्रेम करती हूं, क्योंकि वह प्रेम है नहीं । पति कहता है, मैं पत्नी को प्रेम करता हूं, क्योंकि वह प्रेम है नहीं । बुद्ध नहीं कहते कि मैं प्रेम करता हूं, महावीर नहीं कहते हैं कि मैं प्रेम करता हूं, क्योंकि वे प्रेम हैं। प्रेम उनसे हो ही रहा है। करने के लिए कोई चेष्टा, कोई आयोजन, कोई विचार भी आवश्यक नहीं है।
अब सूत्र -
'प्रमाद को कर्म कहा है, अप्रमाद को अकर्म । जो प्रवृत्तियां प्रमादयुक्त हैं, वे कर्म-बंधन करनेवाली हैं। जो प्रवृत्तियां प्रमादरहित हैं, वे कर्म-बंधन नहीं करतीं। प्रमाद के होने न होने से मनुष्य क्रमशः मूढ़ और प्रज्ञावान कहलाता है।'
जो मैं कह रहा था, उससे जुड़ा हुआ सूत्र है। महावीर करने को कर्म नहीं कहते, न करने को अकर्म नहीं कहते। हम करते हैं तो कहते कर्म, और नहीं करते हैं तो कहते हैं अकर्म। हमारा जानना बहुत ऊपरी है। आपने क्रोध नहीं किया तो आप कहते हैं कि मैंने क्रोध नहीं किया । आपने क्रोध किया तो आप कहते हैं मैंने क्रोध किया। जब आप कुछ करते हैं तो उसको कर्म कहते हैं, और कुछ नहीं करते हैं तो
Jain Education International
46
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.