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महावीर-वाणी भाग : 2
नया कपड़ा भी उसको दे दे तो वह नया कपड़ा नहीं पहनता था। फकीर-वह पहले उसमें छेद कर लेता, कपड़े को गंदा करता, फाड़ता-तब पहनता ! गुदड़ी बना लेता, तब कपडे का उपयोग करता ! __फटे-पुराने, गंदे कपड़े पहने हुए फकीर आया सुकरात से मिलने । सुकरात ने उससे कहा कि 'तुम कितने ही फटे कपड़े पहनो, तुम्हारे छिद्रों से तुम्हारा अहंकार ही झांकता है । तुम्हारे छिद्र भी तुम्हारे अहंकार का हिस्सा हैं; वे भी तुम्हें भर रहे हैं। तुम जिस अकड़ से चल रहे हो, सम्राट भी नहीं चलता!'... क्योंकि वह आदमी, समझ रहा है, 'मैं फकीर हूं, त्यागी हूं!' ... त्यागियों को देखें ! उनकी अकड़ देखें! जैसे सब क्षुद्र हो गये हैं उनके सामने । भोगी को वे ऐसे देखते हैं, जैसे कीड़ा-मकोड़ा-पाप में गिरा हुआ, पाप की गर्द में गिरा हुआ। उनके ऊपर बोझ है कि आपको पाप से उठायें। अब नरक आपका निश्चित है। जब भी वे आपको देखते हैं तो उनको लगता है-बेचारा ! नरक में सडेगा ! लेकिन उन्हें खयाल नहीं आता कि नरक में सडाने का यह खयाल बड़े गहरे अहंकार का खयाल है।।
त्याग नशा दे रहा है। तो त्यागी और ढंग से उठता है, और ढंग से बैठता है। उसकी अकड़-उसकी अकड़ मजेदार है। वह कहता है, 'मैंने रुपयों पर लात मार दी, तिजोरी को ठुकरा दिया; पत्नी सुन्दर थी, आंख फेर ली! तुम अभी तक पाप में पड़े हो!' वह अपनी हर प्रक्रिया से-'मैं कुछ ज्यादा हूं, कुछ महत्वपूर्ण हूं, कुछ खास हूं', इसकी कोशिश कर रहा है।
और आदमी ने खास होने की इतनी कोशिशें की हैं कि जिसका हिसाब नहीं। आदमी कोई भी नालायकी कर सकता है, अगर खास होने का मौका मिले। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अधिक लोग अपराध की तरफ इसलिए प्रवृत्त हो जाते हैं कि अपराधी होकर वे खास हो जाते हैं। हजारों अपराधियों का अध्ययन करके इस नतीजे पर पहुंचा गया है कि अगर उनके अहंकार को तृप्त करने का कोई और रास्ता खोजा गया होता तो उन्होंने अपराध न किये होते। अनेक हत्यारों ने वक्तव्य दिये हैं, और वक्तव्य बड़े गहरे हैं कि वे सिर्फ अखबार में अपना नाम छपा एक दफा देखना चाहते थे। जब उन्होंने किसी की हत्या कर दी तो अखबार में सुर्खियों में नाम छप गया।
हमारे अखबार भी हत्याओं में सहयोगी हैं। आप किसी को बचा लें, कोई अखबार में कोई खबर न छापेगा; किसी को मार डालें, अखबार में खबर छप जायेगी। ऐसा लगता है कि बुरा करना प्रसिद्ध होने के लिए बिलकुल आवश्यक है। शुभ की कोई चर्चा नहीं होती। शभ जैसे प्रयोजन ही नहीं है !
मनसविद कहते हैं कि जब तक हम अशुभ को मूल्य देंगे, तब तक कुछ लोग अशुभ से अपने अहंकार को भरते रहेंगे।
खास होने का मजा है... । राबर्ट रिप्ले ने लिखा है कि वह जवान था, और प्रसिद्ध होना चाहता था। जवानी में सभी प्रसिद्ध होना चाहते हैं—स्वाभाविक है, जवानी इतनी पागल है, इतनी बेहोश है। चिंता तो तब होती है, जब बुढ़ापे में कोई उसी पागलपन में पडा रहता है।
तो रिप्ले प्रसिद्ध होना चाहता था, लेकिन कोई उसे उपाय नहीं सझता था, कैसे प्रसिद्ध हो जाये।
दुनिया इतनी बड़ी है अब, और इतनी करीब आ गई है कि प्रसिद्धि के मौके कम हो गये हैं। दुनिया में, मनसविद कहते हैं कि मानसिक रोग बढ़ते जाते हैं, क्योंकि प्रसिद्धि के मौके कम होते जाते हैं। पुरानी दुनिया में हर गांव अपने में एक दुनिया था। गांव का कवि 'महान-कवि' था, क्योंकि दूसरे गांव से कोई तुलना नहीं थी। गांव का चमार भी 'महान-चमार' था, क्योंकि उस जैसे जूते बनानेवाला कोई भी नहीं था। गांव में सैकड़ों लोगों का अहंकार तृप्त हो रहा था। अब पूरे मुल्क में जब तक आप 'राष्ट्रीय-चमार' न हो जायें, 'राष्ट्र-कवि' न हो जायें, तब तक आपकी कोई कीमत नहीं है। हजारों कवि हैं, हजारों चमार हैं, हजारों दुकानदार हैं, हजारों... कोई पूछनेवाला नहीं है इस संख्या में। और दुनिया सिकुड़ती जाती है। जब तक विश्व-कवि न हो जायें, तब तक बहुत मजा नहीं, जब तक नोबल प्राइज न मिल जाए तब तक कुछ मजा नहीं । कठिन होता जाता है; अधिक लोगों के अहंकार तृप्त नहीं हो पाते। अधिक लोगों
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