Book Title: Mahavira Vani Part 2
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 482
________________ महावीर वाणी भाग : 2 दिखाई पड़ती है । अहंकारी व्यक्ति को सारे लोग अहंकारी मालूम पड़ेंगे। और हरेक लगेगा कि अपनी अकड़ में जा रहा है । और हरेक की अकड़ चोट पहुंचायेगी । यह बड़े मजे की बात है कि आप, जो आदमी विनम्र होता है, हम्बल होता है, निरहंकारी होता है, उसका इतना आदर क्यों करते हैं ? आपने कभी सोचा ? सब समाज दुनिया के विनम्र आदमी का आदर करते हैं; और कहते हैं: 'बड़ा श्रेष्ठ आदमी है, उसको अहंभाव बिलकुल भी नहीं।' लेकिन क्यों दुनिया के सभी लोग निरहंकारी का आदर करते हैं ? निरहंकारी के आदर का बुनियादी कारण आपका अहंकार है। क्योंकि निरहंकारी आपको चोट नहीं पहुंचाता। और आप उसको कितनी ही चोट पहुंचायें, तो भी प्रत्युत्तर नहीं देता । अहंकारी आपको अखरता है। अखरने का कुल कारण इतना है कि आपके भीतर के अहंकार को चोट लगती है। यह अभिनेत्री जो अपने पति के बड़े हस्ताक्षर देखकर तलाक देने को तैयार हो गयी, जरूर इसके मन में पति से बड़े हस्ताक्षर करने की वासना छिपी रही होगी। उसी को चोट पहुंची। अन्यथा दिखाई भी नहीं पड़ सकता था । यह खयाल में भी न आता कि किसने बड़े हस्ताक्षर किये हैं । जो दिखाई पड़ता है, वह कहीं भीतर छिपा है। जब आपको आसपास के लोग पापी दिखाई पड़ते हैं, तो उनके पाप का जो भी ढंग हो, समझना कि वह आपकी बीमारी का निदान है। इस जगत में हर दूसरा व्यक्ति दर्पण है। और अगर हम ठीक से उसमें अपनी छवि देखें, तो हमें अपनी साधना का मार्ग स्पष्ट हो सकता है। इसे थोड़ा सोचना आप कि आपको क्या-क्या खामियां दूसरे लोगों में दिखाई पड़ती हैं; क्यों दिखाई पड़ती हैं; और कौन-कौन सी चीजें चोट की तरह आपके भीतर घाव बनाती हैं; जरा-सी चोट, और आपका घाव भीतर कंपित और दुख से भर जाता है। कौन-सी चीजें हैं ? तो वही, जिनमें आप भीतर से रस ले रहे हैं। लेकिन वह रस अचेतन है । - जीवन के निदान में यह तीसरा सूत्र बहुत जरूरी है कि जो आपको दूसरों में दिखाई पड़ता हो, दूसरों की फिक्र छोड़कर उसे अपने में खोजने लग जाना। ये तीन बातें खयाल में लें; फिर हम महावीर के सूत्र में प्रवेश करें। महावीर कहते हैं"जो दूसरों 'यह दुराचारी है' ऐसा नहीं कहता, जो कटु वचन - जिससे सुननेवाला क्षुब्ध हो— नहीं बोलता, 'सब जीव अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ही सुख-दुख भोगते हैं' - ऐसा जानकर जो दूसरों की निंद्य चेष्टाओं पर लक्ष्य न देकर अपने सुधार की चिंता करता है, जो अपने-आपको उग्र तप और त्याग आदि के गर्व से उद्धत नहीं बनाता, वही भिक्षु है । " बहुत-सी बातें हैं। एक : जो दूसरों को 'यह दुराचारी है' ऐसा नहीं कहता। कहने का ही सवाल नहीं है, जो अपने भीतर भी ऐसा भाव निर्मित नहीं करता कि दूसरा दुराचारी है। क्योंकि कहने से क्या फर्क पड़ेगा ? जो अपने भीतर भी ऐसा अनुभव नहीं करता, यह दुराचारी है I लेकिन साधुओं के पास जायें। साधुओं की आंखों में आपकी निंदा के सिवाय और कुछ भी नहीं । साधुओं को जितना मजा है आपकी निंदा करने में, उतना किसी और बात में नहीं आता। साधु देखकर ही आपको आनंद अनुभव करता है कि पापियों के सामने वह पुण्यात्मा मालूम पड़ता है कि तुम भोगी, कि तुम नारकीय, कि तुम नरक की योजना बना रहे हो, कि तुम कामी, कि तुम शरीर की वासना में डूबे हुए हो, कि तुम संसार में भटक रहे हो, अज्ञानी । साधु की आंखों में निंदा का स्वर है । और शायद आप भी उसके पास इसीलिए जाते हैं, शायद आप भी उसको इसीलिए आदर देते हैं कि अपनी निंदा का स्वर आप वहां पाते हैं । यह बड़े मजे की बात है। इस जगत में हर व्यक्ति अपने विपरीत से आकर्षित होता है। जैसे स्त्री पुरुष से आकर्षित होती है; ' पुरुष Jain Education International 468 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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