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महावीर वाणी भाग 2
को दो हिस्सों में बाटते हैं : लोक और अलोक । लोक – जिसे हम जानते हैं; जिसका विज्ञान अध्ययन कर सकता है। और अलोकजिसमें प्रवेश का कोई उपाय नहीं है ।
इस संबंध में भी महावीर बड़े अदभुत हैं। क्योंकि अभी-अभी वैज्ञानिकों ने खोज की है कि इस जगत के ठीक विपरीत एंटि-यूनिवर्स होना चाहिए । क्योंकि जगत में विपरीत के बिना कोई भी चीज नहीं हो सकती। तो हमारा यह जो जगत है, यह जो ब्रह्मांड है – सूर्य, चंद्र, तारों का - इससे ठीक विपरीत प्रक्रिया वाला कोई लोक होना चाहिए, जो इसके ठीक बगल में होगा। लेकिन जिसमें हम प्रवेश नहीं कर सकते। क्योंकि हमारे प्रवेश का सारा ढंग लोक में ही होगा |
महावीर ने पच्चीस सौ साल पहले दो बातें कही हैं कि एक तो यह लोक है, जिसे हम जानते हैं; और एक अलोक है, जिसे हम कभी नहीं जान सकते। लेकिन उसका होना इसलिए जरूरी है कि जगत द्वंद्व के बिना नहीं होता। यह जो मुक्त आत्मा है, जो शरीर से छूट जाती है, यह लोक और अलोक के मध्य में, सीमांत पर ठहर जाती है। लोक से इसका छुटकारा हो जाता है। यह पदार्थ और शून्य के बीच में अशरीरी चैतन्य सदा आनंद में लीन रह जाता है ।
यह जो आनंद की शाश्वत धारा है, यह उन्हें ही उपलब्ध होती है जो क्रमशः अपने को क्षुद्र शरीर से, क्षणभंगुर शरीर से मुक्त करने की चेष्टा में रत रहते हैं। ऐसी चेष्टा में लगा हुआ व्यक्ति साधु है; और ऐसी चेष्टा की पूर्णता को पा लिया व्यक्ति सिद्ध है।
आज इतना ही ।
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