Book Title: Mahavira Vani Part 2
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 539
________________ संयम है संतुलन की परम अवस्था दूर मोक्ष से कोई भी नहीं । भोगी भी इससे थोड़ा करीब है। क्योंकि आज नहीं कल, जिंदगी का अनुभव ही उसे बार-बार दुख देकर बता देगा कि यह जिंदगी कुछ सार्थक नहीं है। लेकिन इस संयमी को, तथाकथित संयमी को जिंदगी में जो-जो गलत है, उसका रस बना ही रहेगा। वह गलत का रस इसके संयम से पैदा हो रहा है। क्योंकि जिस-जिस चीज को आप रोकते हैं, उस-उस में रस पैदा हो जाता है। आदमी के अधिक पापों का कारण संयम की शिक्षा और नीति की शिक्षा है। जिन-जिन पापों से आदमी को रोकने के लिए कहा जाता है, उन उन में रस आ जाता है। जरा फिल्म में लगा दें कि ओनली फार एडल्टस- सिर्फ वयस्कों के लिए, फिर जिनकी मूंछ की रेखा भी नहीं आयी, वह भी दो आने की मूंछ खरीदकर लगाकर क्यू में खड़े हो जाते हैं। फिर पत्रिकाएं निकलती हैं— 'ओनली फार मेन' । सिर्फ औरतें पढ़ती हैं उस पत्रिका को, आदमी पढ़ते ही नहीं। 'ओनली फार वुमेन' ' - आदमी पढ़ेगा ही, स्त्रियां उसकी फिकर नहीं करतीं। क्योंकि वे उसे जानती हैं कि स्त्री में क्या होनेवाला है। जहां निषेध है वहां रस पैदा हो जाता है। जिस चीज में रस पैदा करना हो उसका निषेध करना जरूरी है। आप बड़े हैरान होंगे—इसको मैं जिंदगी की बिडंबना कहता हूं। और यह समझ में न आये तो बड़ी अड़चन हो जाती है। आपके सब तथाकथित साधु-संत आपकी जिंदगी में जो-जो गलत चल रहा है, उसके लिए जिम्मेवार हैं। क्योंकि वे निषेध किये चले जाते हैं और रस पैदा किये चले जाते हैं। और जिस चीज का निषेध कर दो, बहुत निषेध करो, उसमें शक होने लगता है कि जरूर कोई बात होनी चाहिए । बाप बेटे को समझाता है, सिगरेट मत पीना। अभी बेटे को खयाल ही नहीं आया था। सच तो यह है कि अगर बेटे अपने पर ही छोड़ दिये जायें तो हजारों साल लग जायेंगे उनको सिगरेट खोजने में। क्योंकि धुआं बाहर-भीतर करना इतनी नालायकी का काम - इसको कौन करना चाहेगा ! और किसलिए करना चाहेगा ! इसमें कुछ भी तो अर्थ नहीं मालूम पड़ता । लेकिन चारों तरफ समझानेवाले लोग हैं कि धूम्रपान है, सिगरेट मत पीना! बाप यह भी कहता है : क्या करूं, मेरी तो खराब आदत कि मैं पीने लगा, बाकी तू मत पीना ! बेटे को रस शुरू होता है कि जरूर कुछ न कुछ मामला है। जो भी चीज रोकी जाती है, उसमें कुछ होना चाहिए। नहीं तो रोकेगा कौन ! क्यों रोकेगा ! और ये सारे समाज के पंडे-पुरोहित क्यों इसके खिलाफ पड़ेंगे अगर कुछ भी नहीं है ! आखिर साधु-संन्यासी अपनी आत्मा की बात छोड़कर क्यों समझाते रहे हैं लोगों को कि धूम्रपान मत करो, सिगरेट मत पिओ; यह मत करो... । जरूर सिगरेट में कोई आनंद होना चाहिए कि इतने लोग दीवाने हैं करने को । और इतना समझानेवालों के बाद भी कोई रुकता नहीं... कोई रुकता नहीं। एक आदमी को नहीं बदल पाते इतना समझाकर ! तो बच्चे को भी यह दिखाई पड़ना शुरू होता है कि इतने लोग धुआं बाहर-भीतर कर रहे हैं। अरबों रुपये की सिगरेट-बीड़ी पीयी जा रही है। और इतने हजारों साल से साधु-संत समझा रहे हैं, कोई इनकी सुनता नहीं । जरूर साधु-संतों में उतना रस नहीं है, जितना इस धूम्रपान में है । पहली दफा जब बच्चा सिगरेट पीता है तो जरा भी रस नहीं आता । वमन भी हो सकता है, खांसी आ सकती है, आंख से आंसू आ जायेंगे - क्योंकि बात ही बेहूदी है। लेकिन वह देखता है कि कोई सुख बिना दुख के तो मिलते नहीं... तप के बिना। तो थोड़ी साधना करनी पड़ेगी; अभ्यास करना पड़ेगा। बिना अभ्यास के कहीं कुछ हुआ है! और जब इतने लोग पा चुके इस अवस्था को ... धूम्रपान का मोक्ष - भी कोशिश किये चला जाऊं । फिर वह अभ्यस्त हो जाता है। नरक के लिए भी अभ्यस्त हो सकता है आदमी! दुख के लिए भी अभ्यस्त हो सकता है ! और जब अभ्यस्त हो जाता है तब एक बड़ी मजेदार घटना घटती है; एक कंडिशनिंग हो जाती है। धूम्रपान एक कंडिशनिंग है। एक संस्कार Jain Education International 525 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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