Book Title: Mahavira Vani Part 2
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 563
________________ अंतस बाह्य संबंधों से मुक्ति क्राइस्ट होना एक बात है, क्रिस्चियन होना एक बात है । क्रिस्चियन होना शायद खुद को धोखा देना है, आत्मवंचना है। अगर महावीर से प्रेम ही है, तो जिन होने की कोशिश करनी चाहिए, जैन होने की नहीं। अगर महावीर से प्रेम ही है, तो महावीर जहां हैं, वहां पहुंचने की चेष्टा करनी चाहिए। महावीर कहते हैं कि जो व्यक्ति भीतर के धर्म का स्पर्श कर लेता है, उसके सारे कर्म-मल गिर जाते हैं। कुछ करना नहीं होता । जैसे यहां कोई रोशनी जला दे, तो अंधेरा समाप्त हो जायेगा । ऐसे ही भीतर की रोशनी जलते ही जीवन का सारा अंधेरा गिर जाता है। उस अंधेरे में जितने उपद्रव हमने पाले थे, वे भी गिर जाते हैं । जो भय, जो आसक्तियां, जो मोह बनाये थे अंधेरे के कारण, अंधेरे के गिरते ही खो जाते हैं। जैसे इस कमरे में अंधेरा हो, और आप डरते हैं कि पता नहीं कमरे में कोई छिपा न हो। तो भय है। या आप सोचते हैं कि मेरी प्रेयसी इस कमरे के भीतर होगी, तो आप अंधेरे में बड़े रस से टटोलकर खोज रहे हैं। फिर रोशनी हो जाये, वहां कोई भी नहीं है। भय भी खो गया, प्रेम भी खो गया और अंधेरा भी चला गया। हमने अंधेरे में जी-जीकर संसार के जो भी संबंध बनाये हुए हैं, वे ऐसे ही हैं। जिस दिन भीतर की रोशनी होती है— अंधेरा भी खो जाता है, वे सारे संबंध और कर्मों का जाल भी गिर जाता है। महावीर कहते हैं, उस दिन सब दिशाओं को आलोकित करनेवाला प्रकाश जन्मता है। वही सिद्ध की अवस्था है। उसे महावीर ने केवलज्ञान कहा है। वह परम निर्वाण, परम मुक्त चेतना का अनुभव है। जहां सिर्फ ज्ञान ही रह जाता है। जहां सिर्फ प्रकाश ही रह जाता है। कोई चीज प्रकाशित भी नहीं रह जाती, सिर्फ शुद्ध प्रकाश रह जाता है। और अनंत आयामों तक प्रकाश फैल जाता है— जिसके लिए कोई बाधा नहीं रहती । निर्बाध प्रकाश का सागर । लेकिन विरक्ति से शुरुआत है यात्रा की और निर्बाध प्रकाश के सागर पर अंत है । जो विरक्ति में कच्चा है, वह यहां तक कभी भी नहीं पहुंच पायेगा। पहला कदम ही जिसका भटक गया है, उसकी मंजिल कभी आनेवाली नहीं है। और जो उधार धर्म को ही लेकर चल रहा है, वह भी कभी सत्य तक नहीं पहुंच पायेगा। धर्म प्रतिध्वनि है जाननेवालों की। मगर हमारी बड़ी अजीब हालत है। मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन बैठा है एक रेलवे स्टेशन के विश्रामालय में । उसका मित्र पण्डित रामशरण दास उसके पास ही अखबार पढ़ रहा है। नसरुद्दीन कहता है, 'पण्डित जी, कागज तो नहीं है?" वह अपने खीसे से बिना आंख उठाये एक कागज निकालकर नसरुद्दीन को दे देता है । फिर थोड़ी देर बाद नसरुद्दीन कहता है, 'पण्डित जी, कलम तो नहीं है?' तो वह एक कलम निकालकर अपने खीसे से दे देता है। नसरुद्दीन कुछ लिखता है; फिर कहता है, 'लिफाफा?' तो पण्डित रामशरण दास लिफाफा दे देते हैं । फिर वह लिफाफा में रखकर कहता है, 'स्टैम्प ?' तो वे क्रोध में अपनी डायरी खोलकर स्टैम्प निकालकर दे देते हैं। तो वह स्टैम्प लगा देता है। फिर वह कहता है, 'पण्डित जी, व्हाट इज दि ऐड्रेस आफ योर गर्ल फ्रेन्ड - तुम्हारी प्रेयसी का पता क्या है ? ' वे चिट्ठी लिख रहे हैं। कागज भी उधार, कलम भी उधार, लिफाफा भी उधार, स्टैम्प भी उधार। यहां तक भी ठीक। वह प्रेयसी भी उनकी नहीं है, जिसको वे पत्र लिख रहे हैं। वह भी पण्डित जी की प्रेयसी ! और उनकी प्रेयसी का पता पूछ रहे हैं। Jain Education International 549 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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