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अंतस-बाह्य संबंधों से मुक्ति
ही पैदा हुए हैं, वही आप हैं। वह आपका स्वरूप है।
इसलिए महावीर कहते हैं, जब कोई अनुत्तर धर्म से संस्पर्शित होता है जब भीतर की निजता का स्वभाव समझ में आता है और जब भीतर के जीवन की वास्तविकता प्रतीत होती है, और जब भीतर का स्पर्श और स्वाद मिलता है, तो सारे कर्म की जो कालिमा है चारों तरफ से, वह गिर जाती है। वह इसीलिए थी कि हमें भीतर का कोई स्वाद न था—इसलिए बाहर के स्वाद की तड़प थी। और उसके लिए हमने सारे कर्मों का जाल निर्मित किया था। वह इसीलिए थी कि भीतर का आनंद जाना नहीं इसलिए बाहर के सुख की दौड़ थी। उस दौड़ में हमने बड़ी-बड़ी दीवालें खड़ी कर ली थीं। उस दौड़ के लिए हमने बड़े साधन-सामग्री जुटा ली थी। वही सारे सामग्री-साधन हमारे चारों तरफ घिर गये थे और हम भीतर अंधेरे में बंद हो गये थे। रोशनी कहीं दिखाई नहीं पड़ती थी, और रोशनी सदा भीतर मौजूद थी। ___ यह जो भीतर की रोशनी है, इसको महावीर कहते हैं कि जैसे ही कर्म-मल झड़ जाते हैं, सर्वत्रगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होता है। और तब सब दिशाओं में जानेवाला प्रकाश उपलब्ध हो जाता है। तब कोई दिशा अंधेरी नहीं रह जाती। और तब कोई कोना
अज्ञान से भरा नहीं रह जाता। तब जीवन पूरा प्रकाशोज्वल हो जाता है। तब पूरा जीवन एक सूर्य बन जाता है। __ ऐसा महावीर किसी सिद्धांत के कारण नहीं कह रहे हैं। महावीर कोई दार्शनिक नहीं हैं, कोई फिलासफर नहीं हैं। यह उनकी कोई हाइपोथिसिस, कोई परिकल्पना नहीं है। ऐसा महावीर अपने निज के अनुभव से कह रहे हैं। वे एक यात्री हैं, जो उसी रास्ते से गुजरे हैं, जहां से आप गुजर रहे हैं। लेकिन ऐसे यात्री हैं, जो मंजिल पर पहुंच गये हैं और जो अपने पीछेवाले लोगों को कह रहे हैं कि जिस यात्रा पर तुम चल रहे हो उसमें वर्तुल में मत घूमते रहना, नहीं तो तुम कहीं पहुंच न पाओगे, घूमते ही रहोगे। सीधी रेखा पकड़ना । और सीधी रेखा पकड़ने के सूत्र दे रहे हैं। और मंजिल दूर नहीं है। अगर आसक्ति का वर्तुल टूट जाये, तो मंजिल बहुत निकट है। और आसक्ति का वर्तुल न टूटे, तो मंजिल निकट होकर भी बहुत
दूर है।
आप ऐसा समझिए कि इस कमरे में हम एक गोल घेरा खींच दें और आप उस गोल घेरे में घूमते रहें,घूमते रहें-कमरे से बाहर जाना है और घूमते रहें, घूमते रहें--और कोई आपको कहे कि कितना ही चलो, इससे आप कहीं पहुंच न पाओगे। लेकिन आप कहोगे कि चलने से आदमी पहुंचता है। अगर मैं नहीं पहुंच पा रहा हूं, तो उसका मतलब है कि मैं ठीक से नहीं चल रहा हूं। वह आदमी कहेगा, आप ठीक से भी चलो, तो भी जिस रेखा-पथ पर आप चल रहे हो, ठीक से चलकर भी नहीं पहुंच पाओगे। तो आपको उसकी बात समझ में नहीं आयेगी। आप कहोगे, यह हो सकता है कि ठीक से चलकर भी न पहुंच पाऊं, क्योंकि मेरी चाल की गति धीमी है। तो मुझे दौड़ना चाहिए। तो अगर मैं दौडूंगा तो जरूर पहुंच जाऊंगा-क्योंकि ऐसी कोई भी मंजिल हो, कितनी ही दूर हो, आखिर दौड़ने से मिल ही जायेगी। वह आदमी आपसे कहे कि आप दौड़ो, तो भी नहीं पहुंचोगे, सिर्फ थककर गिरोगे। क्योंकि जिस वर्तुल में आप चल रहे हो, वह वर्तुल बाहर जाता ही नहीं है। इस वर्तुल को छोड़ो, दरवाजे को देखो और दरवाजे से बाहर निकलने की कोशिश करो-तो इतना चलने की जरूरत नहीं है, दरवाजा बहुत निकट है। __ आपका वर्तुल कई बार दरवाजे के करीब से ही जाता है। बिलकुल दरवाजे के करीब से–लेकिन आप अपने वर्तुल में मुड़ जाते हैं। कितनी बार आपकी आसक्ति आपको विरक्ति के करीब नहीं ले आती। कितनी बार आपका जीवन आपको आत्मघात के करीब नहीं ले आता ! और कितनी बार संसार व्यर्थ नहीं होने लगता, लेकिन व्यर्थ होते ही होते आप फिर मुड़ जाते हैं। नयी आसक्ति और वर्तुल फिर वापस निर्मित हो जाता है। दरवाजा बहुत बार करीब आता है, लेकिन छूट जाता है।
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