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संन्यास प्रारंभ है, सिद्धि अंत
में कोई अंतर नहीं है। अनंत परमात्माओं की धारणा है महावीर की । प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा है, प्रत्येक व्यक्ति के भीतर भगवत्ता है। सिद्धि का अर्थ है : भगवत्ता को पा लेना, भगवान हो जाना । सिद्धि का अर्थ है : जहां अब कोई वासना का सवाल न रहा; जहां से पार जाने का कोई उपाय नहीं है; जो आखिरी बिंदु है जीवन का ।
इसी की हम तलाश भी कर रहे हैं। लेकिन जहां हम तलाश कर रहे हैं, शायद वह जगह नहीं है जहां इसे पाया जा सके। हम इसी को खोज भी रहे हैं- कोई धन में, कोई पद में, कोई प्रतिष्ठा में, कोई शास्त्र में। लेकिन यह खोज वहां हो नहीं सकती, उसे खोजना होगा भीतर। जहां भी हम खोज रहे हैं हम गलत खोज रहे हैं। और इसलिए जब हमें नहीं मिल पाता, तो हम इस बात का खयाल नहीं लेते कि हमारी खोज गलत थी । हम सोचते हैं, हमारा भाग्य गलत था । हम सोचते हैं, कोई चीज बाधा बन गयी ।
जब हम एक व्यक्ति में सुख खोजते हैं; नहीं पाते हैं, तो हम सोचते हैं, यह व्यक्ति ही गड़बड़ है, इसीलिए सुख नहीं मिल पा रहा है, किसी और में खोजें। धन में खोजते हैं; नहीं मिलता, तो सोचते हैं, पद में खोजें, पद में खोजते हैं; नहीं मिलता है तो सोचते हैं, शास्त्र में खोजें ।
लेकिन एक दिशा सदा अछूती रह जाती है; हम कभी नहीं सोचते कि अपने में खोजें । सदा कहीं, किसी और में! जब तक हमें यह खयाल न आ जाये कि हम कहीं भी खोजें, खोज गलत होगी; जब तक हम अपने में न खोजें। और इसीलिए हमें दूसरों में इतने दोष दिखाई पड़ते हैं। दूसरे में दोष दिखाई पड़ने का कुल कारण इतना है कि जहां-जहां हम असफल होते हैं, वहां-वहां दोष खोजकर हम अपने मन को तृप्त कर लेते हैं ।
मुल्ला नसरुद्दीन बूढ़ा हो गया था। नौकरी के लिए एक दफ्तर में गया। वाचमैन की, पहरेदार की जगह खाली थी। उस मालिक कहा कि ठीक है, लेकिन मैं तुम्हें बता दूं कि हमें किस तरह का व्यक्ति चाहिए। तुम ठीक हो, काम हम दे सकेंगे, लेकिन फिर भी तुम समझ लो । हमें ऐसा व्यक्ति चाहिए जो चौबीस घंटे संदेह करे - वाचमैन। कोई भी भीतर आये, तो कभी आस्था और भरोसे से न देखे, चौबीस घंटा संदेह करे । और चौबीस घंटा लोगों के दोष, भूल-चूक निकालने की कोशिश में लगा रहे। और चौबीस घंटा लड़ने को तत्पर रहे। दुष्ट स्वभाव हो, कर्कश आवाज हो । भयावह चेहरा हो और जरा ही कोई उत्तेजना दे दे तो बिलकुल शैतान उसके भीतर प्रगट हो जाये - हमें ऐसा आदमी चाहिए। ठीक है, तुम चल पाओगे।
नसरुद्दीन ने कहा : क्षमा करें - आइ एम सारी, दिस जाब इज नाट फार मी, बट आइ विल सेन्ड वाइफ एराउन्ड – यह काम मेरा नहीं है, लेकिन मैं अपनी पत्नी को भेज दूंगा। बिलकुल जैसा आप कह रहे हैं, वैसा ही व्यक्तित्व है उसका ! अपने में दोष देख पाना तो बहुत मुश्किल है । वह आदमी कह रहा है - जिसको नौकर रखना है— कि तुम ठीक हो । लेकिन नसरुद्दीन कहता है, यह नौकरी मेरे.... मैं इसमें नहीं जमूंगा, मेरी पत्नी...!
दोष सदा दूसरे में दिखाई पड़ते हैं। क्योंकि जो-जो हम पाना चाहते हैं दूसरे से, वह वह हमें नहीं मिलता । वह मिल नहीं सकता — इसलिए नहीं कि दूसरे में कोई भूल है। वह मिल ही नहीं सकता - वह वस्तुओं का स्वभाव नहीं है ।
हम दूसरे से प्रेम चाहते हैं और क्रोध पाते हैं। इसलिए नहीं कि दूसरा क्रोधी है। दूसरे से इसका कोई संबंध नहीं है। जो भी प्रेम चाहता है, वह क्रोध पायेगा। वह प्रेम की चाह में ही हम दूसरे में क्रोध पैदा कर रहे हैं। यह बड़ी मुश्किल बात है; जटिल बात है ।
हमारी वासना ही उपद्रव का कारण है। हम जो-जो मांगते हैं, उससे विपरीत हमें मिलता है। आप खुद अपने जीवन को देखें । जो-जो आपने मांगा है, उससे विपरीत आपने पाया है। लेकिन आप सोचते हैं कि विपरीत मिला इसलिए कि दूसरी तरफ गलत लोग थे । नसरुद्दीन के गांव में पहली दफा टेलीफोन लगा । बूढ़ा आदमी था और प्रतिष्ठित था, और सारे लोग जानते थे, जाहिर था — या
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