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महावीर-वाणी भाग : 2
यह जो हम इस भांति संयम साध लेते हैं, यह संयम हमें मोक्ष तक तो नहीं ले जाता; हमें संसार से ऊपर भी नहीं उठाता; हमें संसार के भीतर ही बांध रखता है- एक कैप्सूल में। हम एक अपने ही संयम के कैप्सूल में बंद हो जाते हैं। न हम संसार को भोग पाते हैं- क्योंकि भोग भी शायद कभी संयम का मार्ग बन जाये। क्योंकि भोगते-भोगते भी आदमी को ऊब पैदा होती है। जिस चीज को हम बार-बार भोगते हैं, उससे ऊब पैदा हो जाती है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी बड़ी नाराज थी एक दिन, क्योंकि नसरुद्दीन ने थाली नीचे फेंक दी भोजन के समय। नसरुद्दीन की पत्नी ने कहा, 'यह तुम क्या कर रहे हो?' नसरुद्दीन ने कहा कि मुझे मार डालेगी! रोज भिण्डी का साग!
पर उसकी पत्नी ने कहा, 'कैसी बात कर रहे हो? सोमवार को तुमने कहा था कि साग बहुत अदभुत है। और मंगलवार को भी तुमने कहा कि साग अच्छा बना है। और बुधवार को भी तुमने पसंद किया और बृहस्पतिवार को भी पसंद किया; शुक्रवार को भी पसंद किया- और आज शनिवार है; और आज अचानक तुम कहने लगे कि मार डालोगी!'
सोमवार को जो पसंद है, मंगलवार को कम पसंद हो जायेगा। बुधवार को और कम पसंद हो जायेगा। अनुभव भी उबा देता है। शनिवार को थाली फेंकने की नौबत आ जायेगी। जो स्वादिष्ट भोजन था, वह जहर जैसा मालूम पड़ने लगेगा।
लेकिन पत्नी यह कह रही है, उसकी बात बड़ी तर्कपूर्ण है। वह यह कह रही है कि जब तुमको छह दिन जो चीज पसंद थी, तो आज अचानक सात दिन का तुम अपना मन कैसे बदल रहे हो? तुम तर्क संगत नहीं हो। जो चीज छह दिन पसंद थी, वह सातवें दिन और भी ज्यादा पसंद होनी चाहिए।
नहीं, मन ऊब जाता है। इसलिए पति-पत्नी एक दूसरे से ऊब जाते हैं। निरंतर एक का ही अनुभव उबानेवाला हो जाता है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब तक पति-पत्नी जगत में हैं, तब तक व्यभिचार को मिटाना मुश्किल है। जब तक विवाह है, तब तक व्यभिचार को मिटाना मुश्किल है। वे शायद ठीक ही कहते हैं, क्योंकि विवाह उबाता है। ऊब से आदमी यहां-वहां भागता है, उससे व्यभिचार पैदा होता है।
अब यह बड़ी मुश्किल की बात है-मनसविद कहते हैं कि वेश्याएं विवाह की संस्था का अनिवार्य अंग हैं। और जब तक विवाह है तब तक वेश्याएं होंगी। और अगर वेश्याओं को मिटाना तो ध्यान रखना, विवाह मिट जायेगा। विवाह ही मिट जाये तो ऊब मिट जाये, ऊब मिट जाये तो फिर कोई सवाल नहीं है। लेकिन विवाह के साथ वेश्या जुड़ी हुई है। - जिंदगी बड़ी अजीब है और बड़ी जटिल है। तो जो आदमी भोग से भी अपने को रोक लेता है और आत्मज्ञान को भी उपलब्ध नहीं होता, वह तो संयम की आखिरी संभावना भी बंद किये दे रहा है। एक संभावना तो यह है कि वह दुख में पड़े, नरक में उतरे और भोगे,
और भोग-भोगकर परेशान हो जाये—इतना परेशान हो जाये कि वह परेशानी ही उसे बाहर निकालने लगे-वह भी बंद हो गया। और दूसरा उपाय यह है कि वह भीतर के प्रकाश को जलाये, शरीर और आत्मा को पृथकता से देखे-उस पृथकता के कारण शरीर की वासना गिर जाये। या फिर शरीर में कोई इतना जाये कि ऊब जाये, ऊब से संयम का जगत शुरू हो। ___ लेकिन जिसको हम संयमी कहते हैं, वह दोनों से बच जाता है। न तो वह आत्मज्ञान को उपलब्ध हो रहा है, न तो भोग के नरक से गुजर रहा है ताकि नरक छोड़ने जैसा मालूम पड़ने लगे। वह रुका हुआ है। उसने अपने चारों तरफ एक कारागृह बना लिया है अपनी कायरता का, अपने डर का, भय का। वह उसमें बंद है।
इस भय में बंद आदमी को मोक्ष से सर्वाधिक दूर समझना। भोगी भी इतना दूर नहीं है। यह जो तथाकथित योगी है, इससे ज्यादा
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