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संयम है संतुलन की परम अवस्था
नसरुद्दीन ने फौरन दरवाजे पर दस्तक दी। पति ने चिढ़कर पूछा, 'कौन है?'
नसरुद्दीन ने कहा, 'द ग्रेटेस्ट पेंटर आफ द वर्ल्ड, पिकासो !'
जब नसरुद्दीन यह कह चुका तभी उसको खयाल आया कि मैं क्या कह रहा हूं वह दरवाजा खुल जायेगा तो पकड़ा जाऊंगा। भागा अपने कमरे में। फिर बहुत सोचता रहा कि ऐसा कैसे हुआ? मैं पिकासो नहीं हूं !
लेकिन सौंदर्य की चर्चा । शरीर को देखने का मन । वासना का जग जाना। फिर इस मूर्च्छित अवस्था में आप कुछ भी हो सकते
हैं ।
तो निकल गया उसके मुंह से कि जगत का सबसे बड़ा चित्रकार ! खोलो दरवाजा ! दरवाजा खुलना आकांक्षा है। दरवाजा खुल जाये, वह स्त्री दिखाई पड़ जाये- - वह वासना है । उस वासना में उसके मुंह से यह भी निकल गया कि मैं पिकासो हूं। यह उसने सोचा नहीं था । यह उसने कभी विचारा नहीं था। इसकी कोई योजना नहीं थी। एक क्षण की वासना में तादात्म्य बदल गया ।
हम जहां-जहां वासना से घिरते हैं। वहीं वहीं हम वही हो जाते हैं, जो होने से हमारी वासना तृप्त होगी। हमारी वासनाएं हमारे तादात्म्य को निर्धारित करती हैं। अगर आप पुरुष हो गये हैं, तो भी वासना के कारण; अगर स्त्री हो गये हैं, तो भी वासना के कारण । अगर आप मनुष्य हो गये हैं, तो भी वासना के कारण। अगर आप कीड़े-मकोड़े थे, पशु-पक्षी थे, तो भी वासना के कारण ।
जहां हमारी वासना सघन हो जाती है— महावीर, बुद्ध और कृष्ण कहते हैं— उस सघनता के कारण हम वैसा ही रूप ग्रहण कर लेते हैं। हम वही हो जाते हैं, जो हमारी वासना हो जाती है। अब तो वैज्ञानिक भी कहते हैं कि मनुष्य के शरीर की जो घटना है... ।
जैसा डार्विन ने कहा था कि मनुष्य इसलिए इस तरह विकसित हो रहा है कि प्रकृति में एक संघर्ष है, उसमें श्रेष्ठतम बच जाता है— सरवाइवल आफ दि फिटेस्ट । वह जो सबसे ज्यादा ताकतवर है, वह बच जाता है। लेकिन इधर डार्विन के बाद जो काम हुआ है विकासवाद पर, उससे हालतें बिलकुल बदल गयी हैं। नये विकासवादी कहते हैं कि इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता कि श्रेष्ठ बच जाता है। आप यह भला कह सकते हैं कि जो बच जाता है, उसको आप श्रेष्ठ कहने लगे। लेकिन श्रेष्ठ के बचने का कोई प्रमाण नहीं मिलता।
और आदमी का विकास संघर्ष के कारण नहीं दिखाई पड़ता, भीतरी वासना के कारण दिखाई पड़ता है - बाहरी संघर्ष के कारण नहीं। आंखें इसलिए शरीर पर प्रगट हुई हैं कि आदमी देखने की वासना से भरा हुआ है। वह देखने की वासना जब प्रगाढ़ हो जाती है तो तीर की तरह भीतर से छेद देती है और आंखें निर्मित होती हैं। और आदमी सुनने की वासना से भरा हुआ है, इसलिए कान निर्मित होते हैं। आदमी छूने की वासना से भरा है, इसलिए शरीर निर्मित होता है।
जो-जो वासना भीतर प्रगाढ़ है, उसके अनुरूप पदार्थ चारों तरफ आत्मा के इकट्ठा हो जाता है। लेकिन यह बड़ी पुरानी खोज है, महावीर, बुद्ध और कृष्ण की कि आदमी का जन्म उसकी वासना से हो रहा है; उसके तादात्मय, उसके रूप, नाम, उसकी भीतरी वासना से निर्धारित हो रहे हैं ।
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आप जो भी हैं, वह अपनी वासना के फल हैं। इस वासना को अगर आप बल देते चले जाते हैं, तो आप इसी चक्कर में घूमते चले जायेंगे; यही वर्तुल बार-बार घूमता रहेगा; आप पुनरुक्त होते रहेंगे। लेकिन अगर इस वर्तुल से बाहर होना है, तो भीतर से वासना का जो संबंध है शरीर से, उसे थोड़ा शिथिल करना होगा।
आप इस बुरी तरह जुड़ गये हैं कि बीच में जरा-सी जगह भी नहीं है कि फर्क दिखाई पड़ सके कि मैं कौन हूं। इस फर्क को देखने
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