Book Title: Mahavira Vani Part 2
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 512
________________ महावीर-वाणी भाग : 2 है, जो चंचल इंद्रियों का दमन कर चुका है, उसे पाप-कर्म का बंधन नहीं होता।' __ जैसे-जैसे होश बढ़ता है, वैसे-वैसे सभी जीवों के भीतर वही ज्योति दिखाई पड़ने लगती है, जो मेरे भीतर है । जैसे-जैसे बेहोशी बढ़ती है, खुद के भीतर ही आत्मा का पता नहीं चलता, दूसरों के भीतर तो पता चलने का कोई सवाल ही नहीं है । जिसे मैं अपने भीतर नहीं जानता, उसे मैं दूसरे के भीतर कभी भी नहीं जान सकता हूं। जो मैं अपने भीतर जानता हूं, वही मुझे दूसरों के भीतर भी दिखाई पड़ सकता है। ज्ञान का पहला चरण भीतर घटेगा । फिर उसकी किरणें दूसरों पर पड़ती हैं। मुझे यही पता नहीं है कि मेरे भीतर कोई आत्मा भी है। इतना बेहोश हूं कि जो भीतर मौजूद है, वह भी दिखाई नहीं पड़ता। आंखों पर धुंध है, नशा है। धुआं घिरा है भीतर, कुछ दिखाई नहीं पड़ता; लेकिन हम चलते चले जाते हैं। __ मैंने सुना है, एक दिन जोर की वर्षा हो रही है और मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी को लेकर कहीं जा रहा है । गाड़ी चला रहा है। वर्षा इतनी जोर की है, लेकिन उसने वाइपर नहीं चलाया। तो उसकी पत्नी कहती है कि नसरुद्दीन, वाइपर तो चला लो, कुछ दिखाई नहीं पड़ता । नसरुद्दीन ने कहा, 'कोई मतलब नहीं, क्योंकि मैं चश्मा घर ही भूल आया हूं। मुझे वाइपर ही नहीं दिखाई पड़ रहे हैं। इसलिए वाइपर चले, न चले, मुझे क्या फर्क पड़नेवाला है !' __ और जोर से गाड़ी भगाये जा रहा है। एक पुलिसवाला उसको रोकता है और पूछता है कि क्या तुम पागल हो गये हो ? इतनी जोर से गाड़ी भगा रहे हो ! इतना धुंध छाया हुआ है और वाइपर तुम्हारे चल नहीं रहे। नसरुद्दीन कहता है कि ऐक्सिडेंट होने के पहले मैं घर पहुंच जाना चाहता हूं, इसलिए तेजी से चला रहा हूं। मूर्छा में ऐसा ही हो रहा है । और आप जो भी कर रहे हैं, सुरक्षा ही के लिए कर रहे हैं। वह तेजी से चला रहा है, ताकि ऐक्सिडेंट होने के पहले घर पहुंच जाये। जो आपके भीतर अगर ऐसी घनी मूर्छा है, जहां कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है, जहां खुद का होना नहीं दिखाई पड़ रहा है, वहां दूसरे का होना दिखाई पड़ने का तो कोई सवाल ही नहीं है। आपको अपना पता नहीं है, दूसरे का पता तो कैसे हो सकता है! __ आत्मज्ञान समस्त ज्ञान का आधार है, स्त्रोत है। तो महावीर कहते हैं, 'सब जीवों को अपने समान समझता है...।' यह होश के बाद ही होगा। ___ 'जो अपने-पराये को समान दष्टि से देखता है...।' क्योंकि जैसे ही होश निर्मित होना शुरू होता है, यह साफ हो जाता है कि न कोई अपना है, और न कोई पराया है । क्योंकि अपने-पराये के सब संबंध मूर्छा में निर्मित हुए थे। किसी को अपना कहा था, क्योंकि वह मेरी मूर्छा को भरता था; मेरे स्वार्थ को पूरा करता था; मेरे शोषण का आधार था। किसी को पराया कहा था, क्योंकि वह बाधा डालता था। कोई मित्र था, क्योंकि सहयोगी था। कोई दुश्मन था, क्योंकि बाधक था। लेकिन जैसे-जैसे होश बढ़ता है, यह साफ होने लगता है कि न कोई सहयोगी हो सकता है, न कोई बाधक; न मुझे कोई सुख दे सकता है, न दुख; इसलिए न कोई मित्र हो सकता है, और न कोई शत्रु । तो अपना-पराया समान होने लगता है। 'जिसने आस्रवों का निरोध कर लिया है...।' जैसे ही होश बढ़ता है, पाप ग्रहण करना बंद हो जाता है। अभी तो हम आतुर होते हैं। कहीं से खबर हमें मिल जाये पाप की, तो हम एकदम आकर्षित होते हैं। हमारी सारी चेतना जैसे पाप के लिए तैयार बैठी थी। पाप में हमें रस है। अखबार देखते हैं; कहीं हत्या, कहीं लूट, कहीं किसी की पत्नी भाग गयी किसी के साथ-आंखें एकदम अटक जाती हैं। बिना पढ़े 498 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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