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पहले ज्ञान, बाद में दया हैं, यह कैसे किया ? लेकिन वह किया इसलिए कि आप उस वक्त होश में नहीं थे
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लोभ में आदमी कुछ भी कर लेता है। अहंकार में आदमी कुछ भी कर लेता है। कामवासना से भरा हुआ आदमी कुछ भी कर लेता है। विक्षिप्तता पकड़ लेती है। महावीर का निदान यह है कि आप जब भी बुरा करते हैं, तो क्या बुरा करते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है; उस बुरे करने के पीछे एक अनिवार्य बात है कि आप होश में नहीं होते ।
इसलिए कृत्यों को बदलने का कोई सवाल नहीं है। भीतर से होश संभालने का सवाल है। और मूर्च्छा छोड़ने का सवाल है । उठते बैठते, सोते, भोजन करते होशपूर्वक करना है।
आप चलते हैं - आपका चलना बेहोश है। आपको चलते वक्त बिलकुल पता नहीं होता कि आप चल भी रहे हैं । चलने का काम शरीर करता है । यह आटोमेटिक है, यांत्रिक है ।
चलने को भी छोड़ दें । एक आदमी साइकिल चला रहा है; उसे पता रहे हैं। आप कहां मुड़ जाते हैं, कब घर के दरवाजे पर आप आ जाते हैं, सोचने की जरूरत नहीं है। इस सबका होश भी रखने की जरूरत नहीं है। एक्सिडेंट होने की अवस्था आ जाये, तो क्षण भर को होश आता है, अन्यथा यंत्रवत सब चलता रहता है।
आपने कभी देखा, आप कार चलाते हों और अचानक एक्सिडेंट होने की हालत आ जाये, तो एक झटका लगता है नाभि पर; सारा शरीर का यंत्र हिल जाता है । विचार बंद हो जाते हैं। एक सेकेंड को होश आता है, अन्यथा सब बेहोशी में चलता चला जाता है।
हमारी जिंदगी पूरी बेहोशी में चलती चली जाती है। जैसे हम सोये हुए चल रहे हों। हमें पता ही नहीं होता, हम क्या कर रहे हैं। बस, यंत्रवत करते चले जाते हैं। रोज वही करते हैं, फिर रोज वही करते चले जाते हैं। ठीक वक्त पर भोजन कर लेते हैं; ठीक वक्त पर सो जाते हैं; ठीक वक्त पर प्रेम कर लेते हैं; ठीक वक्त पर स्नान कर लेते हैं । सब बंधा हुआ है। उस बंधे में आपको सोच-विचार की, होश की कोई भी आवश्यकता नहीं है ।
इस अवस्था को महावीर सोयी हुई अवस्था कहते हैं, एक तरह से हिप्नोटाइज्ड, नशे में। और महावीर कहते हैं, यही पाप का मूल कारण है। इसलिए जो भी हम करते हैं, उस करने में होश न होने की वजह से हम बंधते हैं। हम प्रेम करें तो बंध जाते हैं। हम धर्म करें तो बंध जाते हैं। हम मंदिर जायें तो गुलामी हो जाती है, हम न जायें तो गुलामी हो जाती है।
हम जो कुछ भी करें, मूर्च्छा से गुलामी का जन्म होता है। मूर्च्छा गुलामी की जननी है। इसलिए महावीर कहते हैं, विवेक से चले, विवेक से खड़ा हो, विवेक से बैठे, विवेक से सोये, विवेक से भोजन करे, विवेक से बोले, तो उसे पाप-कर्म नहीं बांधता । प्रत्येक कृत्य में विवेक समाविष्ट हो जाये । प्रत्येक कृत्य की माला मनके की तरह हो जाये और भीतर विवेक का धागा फैल जाये । चाहे किसी को दिखाई पड़े या न पड़े लेकिन आपको विवेक भीतर बना रहे ।
कैसे करेंगे इसे ? हमें आसान होता है, अगर कोई कृत्य बदलने को कह दे । कह दे कि दुकान छोड़ दो, मंदिर बैठ जाओ; समझ में आता है; सरल बात है; क्योंकि छोड़नेवाला तो बदलता नहीं है। वह तो पकड़नेवाला ही बना रहता है।
मकान छोड़ देते हैं, मंदिर पकड़ लेते हैं। पकड़ने में कोई फर्क नहीं आता । मुट्ठी बंधी रहती है। धन छोड़ते हैं, त्याग पकड़ लेते हैं। गृहस्थ का वेश छोड़ते हैं, साधु का वेश पकड़ लेते हैं। पकड़ना जारी रहता है। मूर्च्छा में कोई अंतर नहीं पड़ता है।
ऊपरी चीजें बदल जाती हैं; लेबिल बदल जाते हैं; नाम बदल जाते हैं; भीतर की वस्तु वही की वही बनी रहती है। इसलिए बहुत आसान है कि कोई हम से कह दे कि हिंसा मत करो। मांसाहार मत करो। रात पानी मत पीओ। बिलकुल आसान है, छोड़ देते हैं।
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भी नहीं होता है कि वह चला रहा है। आप अपनी कार चला कब अपने गैरेज में चले जाते हैं, इस सबके लिए आपको यह सब होता है रोज की यांत्रिकता से । अगर बीच में कोई
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