________________
कल्याण-पथ पर खड़ा है भिक्षु साधु नहीं पहनेगा। साधु खोज करेगा। और निश्चित ही जब कोई अपने भीतर धर्म की लकीर की खोज कर लेता है, वह वही होगी जो महावीर की है, बुद्ध की है, कृष्ण की है। उसमें कोई भेद नहीं होनेवाला है। लेकिन वह खोज अपनी होनी चाहिए। __ हम सब ऐसे हैं, जैसे छोटे बच्चे हों। उनकी गणित की किताब होती है, पीछे उत्तर लिखे होते हैं-जल्दी से किताब उलटाकर पीछे देख लेते हैं। उत्तर तो हाथ में आ जाता है, लेकिन विधि हाथ में नहीं आने से उत्तर का क्या मूल्य ! और बच्चे उत्तर के हिसाब से विधि भी बनाकर लिख देते हैं। मगर वह हमेशा गलत होती है—होगी ही। विधि की खोज जरूरी है, उत्तर तो अपने आप आ जाता है। सद्धर्म का अर्थ है : जिसने विधिपूर्वक स्वयं की साधना से जाना है; जो उसका ही उपदेश करता है, जो उसने जाना है।
ध्यान रहे, जगत में अधर्म कम हो जाये, अगर वे लोग उपदेश करना बंद कर दें जिन्होंने स्वयं नहीं जाना है। उनके कारण बड़ा उपद्रव है। दुनिया में अधर्म अधार्मिक लोगों के कारण नहीं है, मरे-मराये धार्मिक लोगों के कारण है। जिनके पास कोई जीवन की ज्योति नहीं है; जो भीतर अंधेरे से भरे हैं और जिनकी चर्चा में प्रकाश के शब्द तैरते रहते हैं, जिनके भीतर मृत्यु है और अमृत की बात करते हैं, उनसे
अधर्म चलता है-अधार्मिक लोगों से नहीं चलता, झूठे धार्मिक लोगों से चलता है। ___ जो स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरों को धर्म में स्थित करता है-वह शर्त है, 'जो घर-गृहस्थी के प्रपंच से निकलकर सदा के लिए कुशील लिंग को छोड़ देता है...' यह कुशील लिंग महावीर की समझने-जैसी बात है। महावीर कहते हैं कि तुम जो भी पहनते हो वेश-भूषा, वह अकारण नहीं है। तुम्हारा प्रयोजन है; भीतर वासना है उससे। ___ एक वेश्या निकलती है सड़क पर, उसके कपड़े आमंत्रण देते हुए हैं। वह अपने शरीर को बेचने निकली है; शरीर को ढांकती नहीं कपड़ों से, उघाड़ती है। उसके कपड़े ढांकने का काम नहीं करते, प्रगट करने का काम करते हैं; शरीर को उछालते हैं। वेश्या वैसे चले, समझ में आता है। लेकिन एक स्त्री जो कहती है, मैं अपने पति के लिए ही हूं और सिवा मेरे पति के मेरे मन में कोई भी नहीं, वह भी वेश्या की तरह शरीर को उभार कर सड़क पर चलती है, तो समझने में अड़चन मालूम होती है।
क्योंकि वेश्या बाजार में खड़ी है, उसे ग्राहक को आमंत्रित करना है। यह गृहिणी क्यों बाजार में वेश्या की तरह खड़ी है ? कहीं अनजाने में, अचेतन में यह भी वेश्या है। इसका पति के साथ, एक के साथ संबंध ऊपरी है; ऊपर-ऊपर है; चेतन में है, अचेतन में नहीं है अचेतन में ये अभी भी दूसरे पुरुषों में उत्सुक है। दूसरे पुरुष आकर्षित हों तो इसे अच्छा लगता है। इसकी चाल तेज हो जाती है। कोई इसमें आकर्षित न हो तो यह धीमी हो जाती है। दूसरों का निमंत्रण इसके भीतर कहीं छिपा है।
महावीर कहते हैं, हम जो भी पहनते हैं, जिस ढंग से उठते-बैठते हैं, उस सब में हमारी वासना भीतर काम करती है। तो महावीर उस वेश को कुशील लिंग कहते हैं। जिससे शील पैदा न होता हो। ___ तो वस्त्र भी ऐसे हों, जो न तो खुद में वासना जगाते हों और न दूसरे में वासना जगाते हों। उठना-बैठना भी ऐसा हो, जो शरीर को उभारता न हो; आत्मा को प्रगट करता हो। लेकिन वासना से भरा हुआ चित्त जानता भी नहीं-अनजाने सब चलता है।
फ्रायड ने काफी विश्लेषण किया है। फ्रायड तो कहता है, हमारी कारें, लंबी कारें; फैलिक हैं। जननेंद्रिय के प्रतीक हैं कि जब कोई लंबी कार, जो जननेंद्रिय की तरह लंबी है, उसमें तेजी से चलता है, तो वह वही आनंद अनुभव करता है, जो पुरुष स्त्री से संभोग में करता
___ यह बड़े मजे की बात है कि नपुंसक लोग गाड़ियां बड़ी तेजी से चलाना पसंद करते हैं। फ्रायड के जीवनभर के अनुभवों का सार यह है कि चूंकि नपुंसक के पास अपनी कामेंद्रिय नहीं है, वह किसी प्रतीक कामेंद्रिय के साथ जीना शुरू कर देता है। तो पश्चिम में कारें इतनी ज्यादा महत्वपूर्ण होती चली जाती हैं कि आदमी अपनी स्त्री की उतनी फिक्र नहीं करता, जितनी अपनी कार की देखभाल करता
481
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org