Book Title: Mahavira Vani Part 2
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 481
________________ कल्याण-पथ पर खड़ा है भिक्षु गयी । और जाकर उसने कहा कि तलाक का इंतजाम कर दो। वह वकील बोला कि हालीवुड के इतिहास में भी ऐसा पहले नहीं हुआ ! तीन घंटे...! अभी जो मेहमान तुम्हारे विवाह में शरीक हुए थे, वे घर भी नहीं पहुंच पाये हैं। चर्च में जो दीये जले थे विवाह की खुशी में, वे अभी जल रहे हैं, अभी बुझे नहीं । इतनी जल्दी क्या है ? इतनी जल्दी ऐसा कौन-सा उपद्रव हो गया तीन घंटे के भीतर ? उस स्त्री ने कहा, 'इन द चर्च ही साइंड हिज नेम इन बिगर लेटर दैन माइन !' पति ने मुझसे बड़े अक्षरों में हस्ताक्षर किये हैं। यह उपद्रव शुरू हो गया। इस आदमी के साथ बन नहीं सकता । अहंकार बड़े अक्षर भी बर्दाश्त नहीं कर सकता है। सिंहासन छोड़ सकता है। अगर अहंकार तृप्त होता हो, तो सब कुछ छोड़ सकता है। लेकिन अगर अहंकार टूटता हो, तो रत्तीभर का फर्क असंभव है। साधक को पहले यह खोज लेना चाहिए, उसकी मौलिक कमजोरी क्या है; उसकी बीमारी क्या है । यह निदान आवश्यक है। क्योंकि अगर ठीक बीमारी का पता ही न हो, तो ठीक औषधि कभी नहीं मिल सकती। निदान आधी चिकित्सा है। ठीक डायग्नोसिस आधा इलाज है। अगर आपको ठीक से पकड़ में आ जाये कि आपकी कमजोरी क्या है, आपकी पीड़ा, आपका दुर्गुण क्या है, तो उसी दुर्गुण के आसपास सारे दुर्गुण इकट्ठे हैं। और जब तक उस दुर्गुण से ऊपर उठने की व्यवस्था न बने, तब तक सदगुणों का आगमन शुरू न होगा। और बीच में आप जन्मों-जन्मों तक चेष्टा कर सकते हैं। वह चेष्टा वैसे ही है जैसे कोई टी. बी. से बीमार है, उसका कैन्सर का इलाज चल रहा है; कि कोई कैन्सर से बीमार है, और उसका कुछ और इलाज चल रहा है। जब तक चिकित्सा-विधि, औषधि बीमारी से युक् न होती हो, तब तक कुछ भी करना खतरनाक है। तब तक बेहतर कुछ न करना है। क्योंकि बीमारी तो बीमारी ही रहेगी, गलत औषधि और बड़ी बीमारी हो जायेगी । मैं साधुओं को देखता हूं; साधकों को देखता हूं; उन्हें अपनी बीमारी का कोई बोध ही नहीं है। और वे लड़े चले जा रहे हैं; औषध लिये चले जा रहे हैं; साधना किये चले जा रहे हैं। उन्हें यह पता नहीं है कि क्या मिटाना है। और उन्हें यह भी पक्का नहीं है, कि क्या प्रगट करना है। इसलिए बहुत कोशिश के बाद भी कोई परिणाम नहीं होता । तीसरी बात समझ लेनी जरूरी है, और वह यह है कि आपके भीतर जो बुनियादी रोग होगा, वही आपको दूसरे लोगों में दिखाई पड़ेगा; खुद में दिखाई नहीं पड़ेगा। बीमारी बच ही सकती है, जब तक छिपी रहे । प्रगट हो जाये, तो मिटनी शुरू हो जाती है । जैसे जड़ें तभी तक सक्रिय होती हैं, जब तक जमीन में दबी रहें; जैसे ही जमीन के बाहर आयीं कि मरनी शुरू हो गयीं । जड़ को जमीन के बाहर निकाल लेना उसकी मौत का आयोजन है। आपके भीतर भी जो बीमारियां हैं वे तभी तक चल सकती हैं, जब तक अचेतन के गर्भ में अनकांशस में दबी रहें; आपको उनका पता न हो। जैसे ही आपके बोध में जड़ें आनी शुरू हुई, कि उनकी मृत्यु शुरू हो गयी। इसलिए कुछ साधनाएं तो यह कहती हैं कि बीमारी को मिटाने के लिए कुछ भी नहीं करना है; सिर्फ बीमारी के प्रति परिपूर्ण होश से भर जाना है। कृष्णमूर्ति की पूरी साधना, जो भीतर रोग है, उसके प्रति पूरी अवेअरनेस, पूरा साक्षात बोध - इतना काफी है। बुद्ध ने भी कहा है कि अपनी बीमारी का पूर्ण स्मरण उससे छुटकारा है। ज्ञान मुक्ति है। क्योंकि जड़ जैसे ही बाहर आती है जमीन के, तभी दिखाई पड़ती है। जब आपके अचेतन के गर्भ से जड़ें बाहर आती हैं, तो दिखाई पड़ती हैं। दिखाई पड़ते ही कुम्हलानी शुरू हो जाती हैं। इधर जड़ें कुम्हलाईं, उधर उनके पत्तों का फैलाव, शाखाओं का फैलाव, फूलों का फैलाव, सब मरने लगा। इसलिए एक तीसरी बात खयाल में ले लेनी चाहिए: आपको अपनी बीमारी स्वयं में दिखाई नहीं पड़ सकती। इसीलिए तो वह है । लेकिन जो बीमारी है, उसका कहीं न कहीं प्रतिफलन होगा। दूसरे लोग दर्पण का काम करते हैं। आपको अपनी बीमारी दूसरे लोगों में Jain Education International 467 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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