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महावीर वाणी भाग 2
से पीड़ित हैं। और उस तरफ ध्यान की धारा नहीं बह रही है, जहां मालिक छिपा । शरीर एक यंत्र है, और बड़ा कीमती यंत्र है। अभी तक पृथ्वी पर उतना कीमती कोई दूसरा यंत्र नहीं बन सका। किसी दिन बन जाए... ।
मैंने सुना है ऐसा, उन्नीसवीं सदी पूरी हो गयी; बीसवीं सदी भी पूरी हो गयी और इक्कीसवीं सदी का अंत आ गया। इन तीन सदियों में कम्प्यूटर का विकास होता चला गया है। तो मैंने एक घटना सुनी है कि बाईसवीं सदी के प्रारंभ में एक इतना महान विशालकाय कम्प्यूटर यंत्र तैयार हो गया है कि दुनिया के सारे वैज्ञानिक उसके उदघाटन के अवसर पर इकट्ठे हुए, क्योंकि वह मनुष्य की अ बनायी गई यांत्रिक खोजों में सर्वाधिक श्रेष्ठतम बात थी। यह कम्प्यूटर, ऐसा कोई भी सवाल नहीं, जिसका जवाब न दे सकता हो। ऐसा कोई प्रश्न नहीं, जिसको यह क्षण में हल न कर सकता हो । जिसको मनुष्य का मस्तिष्क हजारों साल में हल न कर सके, उसे यह क्षण में हल कर देगा ।
स्वभावतः, सारी दुनिया के वैज्ञानिक इकट्ठे हुए। और उदघाटन किया जाना था किसी सवाल को पूछकर; और दो हजार वैज्ञानिक सोचने लगे कि क्या सवाल पूछें। सभी सवाल छोटे मालूम पड़ने लगे, क्योंकि वह क्षण में जवाब देगा। कोई ऐसा सवाल पूछें कि यह यंत्र भी थोड़ी देर को चिंता में पड़ जाए। लेकिन कोई सवाल ऐसा नहीं सूझ रहा था क्योंकि वैज्ञानिकों को भी पता था कि ऐसा कोई सवाल नहीं जिसे यह यंत्र जवाब न दे दे। और तभी बुहारी लगानेवाले एक आदमी ने, जो ऊब गया था, परेशान हो गया था प्रतीक्षा करते-करते कि कब पूछा जाए...कब पूछा जाए... और देर होती जाती थी, तो उसने जाकर यंत्र के सामने पूछा, 'इज देयर ए गाड—क्या ईश्वर है ? '
यंत्र चल पड़ा । बल्ब जले-बुझे, खटपट हुई, भीतर कुछ सरकन हुई और भीतर से आवाज आयी, 'नाउ देअर इज' क्योंकि यंत्र अब यह कह रहा है, कि मैं हूं- - नाउ देअर इज !
वैज्ञानिक बहुत परेशान हुए कि 'ईश्वर अब है', उन्होंने पूछा कि क्या मतलब ? तो उस यंत्र ने कहा कि मेरे पहले कोई ईश्वर नहीं था ।
आदमी का यंत्र अभी सर्वाधिक श्रेष्ठतम है। लेकिन यंत्र भी इक्कीसवीं सदी में यह अनुभव कर सकता है कि मैं ईश्वर हूं। अगर प्रतिभा इतनी विकसित हो जाए तो उसके भीतर भी प्राणों का संचार हो जाए। और आप उस यंत्र में न मालूम कितने जन्मों से जी रहे हैं, जहां प्रतिभा का संचार है। लेकिन आपको अभी अनुभव नहीं हो पाया कि ईश्वर है ।
और लोग पूछते ही चले जाते हैं कि ईश्वर कहां है ? और ईश्वर उनके भीतर छिपा है। जो पूछ रहा है, वही ईश्वर है - वही चैतन्य की धारा । लेकिन उस तरफ हमारी नजर नहीं है। हमारी धारा बाहर की तरफ बहती है, दूसरों की तरफ बहती है, अपनी तरफ नहीं बहती । जब धारा अपनी तरफ बहने लगती है, तो संन्यास फलित होता है। महावीर के सूत्र को हम समझें। इस सूत्र में बड़ी सरलता से बहुत सी कीमत की बातें कही गयी हैं।
'जो कान में कांटे के समान चुभनेवाले आक्रोश-वचनों को, प्रहारों को, अयोग्य उपालंभों — तिरस्कार या अपमान को शांतिपूर्वक सह लेता है, जो भयानक अट्टहास और प्रचण्ड गर्जनावाले स्थानों में भी निर्भय रहता है, जो सुख-दुख दोनों को समभावपूर्वक सहन करता है, वही भिक्षु है।'
सब शब्द सीधे-सीधे हैं, समझ में आते हैं। लेकिन उनके भीतर बहुत कुछ छिपा है, जो एकदम से खयाल में नहीं आता । आमतौर से यह समझा जाता है कि जिसको हम गाली अपमान करें, वह अगर शांति से सह ले, तो बड़ा शांत आदमी है; अच्छा आदमी है । इतनी ही बात नहीं है। इतनी बात तो स्वार्थी आदमी भी कर सकता है; इतनी बात तो चालाक आदमी भी कर सकता है; इतनी बात तो जिसको थोड़ी-सी बुद्धि है, जो जीवन में व्यर्थ के उपद्रव नहीं खड़े करना चाहता है, वह भी कर सकता है।
महावीर इतने पर समाप्त नहीं हो रहे हैं। महावीर का यह कहना कि बाहर से अगर कांटों की तरह चुभनेवाले वचन भी कानों में पड़ें;
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