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महावीर-वाणी भाग : 2
फांसी लग गयी। अब वे दोनों बैठे हैं, और एक-एक दिन गुजरने लगा। तीसरा दिन भी आ गया। अब चार बज गये।
अभी तक कुछ नहीं हुआ, तो उनकी सांस अटकी है कि कहीं ऐसा हो कि पांच के पहले टेलिग्रामवाला कैन्सिलेशन का तार लिये द्वार पर दस्तक दे दे।
फिर साढ़े चार बज गये। फिर पौने पांच...! अब तो जीना बिलकुल मुश्किल हुआ जा रहा है। और ठीक पौने पांच बजे तारवाले ने दस्तक दी। उसने कहा, 'टेलिग्राम !'
'दोनों की सांस वहीं रुक गयी। अब कोई से उठते न बने । आखिर ताकत लगाकर मुल्ला नसरुद्दीन उठा; बाहर गया। पैर चलते नहीं, हाथ कंप रहे हैं; पसीना छूट रहा है। पण्डित जी तो आंख बंद किये वहीं राम-स्मरण करते रहे।
मुल्ला ने जाकर तार खोला, हाथ कंप रहे हैं, और जोर से खुशी से चीखा, 'पंडित रामशरण दास ! योर फादर हैज डाइड-ए गड न्यूज।'
बाप का मरना भी किसी क्षण में गुड न्यूज हो सकता है, एक सुखद समाचार-कि पिता चल बसे! दोनों प्रसन्न हो गये। वह जो सामान बिकना है...।
क्या दुख है और क्या सुख, निर्भर करता है परिस्थिति पर, व्याख्या पर | जो सुख है, वह दुख जैसा मालूम हो सकता है । जो दुख है, वह सुखजैसा मालूम हो सकता है। किसी से प्रेम है; और गले लगे खड़े हैं ! कितनी देर सुख रहेगा यह गले लगना? अगर वह छोड़ने से इनकार ही कर दे, तो चार-पांच मिनट में आप अपनी गर्दन हिलाकर बाहर होना चाहेंगे। लेकिन हाथ जंजीरों की तरह जकड़ जायें, तो जो बड़ा सुख मालूम हो रहा था—कितना फूल की तरह कोमल था, वह पत्थर की तरह दुख हो जायेगा। यही दुख हो गया है परिवार-परिवार में कि जो आलिंगन था किसी क्षण, वह अब जंजीर हो गयी है। अब उससे छटने का उपाय नहीं है।
महावीर कहते हैं, सुख भी दुख का ही एक रूप है। और यह बड़ी वैज्ञानिक बात है। जैसे हम कहते हैं कि गर्मी और सर्दी दो चीजें नहीं हैं । हमको दो चीजें मालूम पड़ती हैं। वैज्ञानिक कहता है, वे एक ही तापमान की दो डिग्रियां हैं। एक ही चीज हैं, गर्मी और सर्दी । अंधेरा और प्रकाश एक ही चीज हैं; एक ही चीज की दो डिग्रियां हैं । जो आपको गर्मी मालूम पड़ती है, वह सर्दी मालूम पड़ सकती है; जो सर्दी मालूम है, वह गर्मी मालूम पड़ सकती है। ये निर्भर करता है कि किस हालत में आप हैं। अगर आप एयर-कंडीशंड कमरे से बाहर आयें, तो आपको गर्मी मालूम पड़ती है । जो वहां खड़ा है, उसको गर्मी का कोई पता नहीं है। आप धूप से आ रहे हैं एयर-कंडिशंड कमरे में, तो आपको बड़ा शीतल मालूम पड़ता है। जो वहां बैठा है, उसे कुछ पता नहीं कि शीतलता है । सापेक्ष है । सुख-दुख भी सापेक्ष घटनाएं है भीतर।
महावीर कहते हैं, जो दोनों को समभाव से सहन कर लेता है; जो न उत्तेजित होता दुख में और न उत्तेजित होता सुख में; जो दोनों का समभावी साक्षी हो जाता है, वही भिक्षु है।
'जो हाथ, पांव, वाणी और इन्द्रियों का यथार्थ संयम रखता है, जो सदा अध्यात्म में रत रहता है, जो अपने आपको भलीभांति समाधिस्थ करता है, जो सूत्रार्थ को पूरा जाननेवाला है, वही भिक्षु है।'
दो-तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। निश्चित ही जैसे-जैसे साक्षी-भाव बढ़ता है जीवन में, संयम बढ़ता है, तब हाथ भी अकारण नहीं हिलता, तब आंख भी अकारण नहीं उठती, तब जीवन का रंच-रंच विवेकपूर्ण हो जाता है। तब आप वही देखते हैं, जो देखना चाहते हैं। तब आप वही करते हैं, जो करना चाहते हैं।
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