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राग, द्वेष, भय से रहित है ब्राह्मण
हैं तो हर रोज पौंड, डेढ़ पौंड वजन गिरने लगता है । कैसे गिर रहा है वजन ? यह वजन कहां जा रहा है ? शरीर को बाहर से भोजन नहीं दिया जा रहा है, तो शरीर के पास एक दोहरी व्यवस्था है, शरीर अपने ही मांस को पचाने लगता है। __ उपवास एक तरह का मांसाहार है, अपना ही मांस पचाना है। डेढ़ पौंड, दो पौंड मांस रोज पचा जायेगा । स्वस्थ आदमी के शरीर में तीन महीने तक के लायक सुरक्षित व्यवस्था होती है। लेकिन इस तीन महीने से ज्यादा भी हम इकट्ठा कर लेते हैं। हम बड़े कृपण हैं, कंजूस हैं । हम सब चीजें इकट्ठी करते रहते हैं। हम इतना इकट्ठा कर लेते हैं कि उसे फेंकना जरूरी हो जाता है। उसे न फेंकें तो वह बोझ हो जायेगा। वह जो अतिरिक्त बोझ हो जाता है, वह हमारी वासनाओं में फिंकने लगता है।
तो महावीर जब कहते हैं, 'दबला-पतला'. तो उनका मतलब है सामान्य, स्वस्थ, जो कपण नहीं है, जो मांस-मज्जा को इकट्ठा करने में नहीं लगा है; क्योंकि वह इकट्ठी मांस-मज्जा गलत मार्गों पर ले जायेगी; बोझ हो जायेगा। ___ पश्चिम में अगर आज वासना का ज्वार आ गया है, तो उसका एक कारण यह है कि जरूरत से ज्यादा भोजन आज पश्चिम में पहली दफा उपलब्ध है। इतना भोजन उपलब्ध है कि बड़ी हैरानी की बात है, उस भोजन का उपयोग क्या किया जाये? अगर आपको बहुत ज्यादा दूध और पौष्टिक पदार्थ मिलें, तो कामवासना बढ़ जायेगी। इतनी भी ज्यादा बढ़ सकती है कि आपको चौबीस घंटे कामवासना ही घेरे रहे। क्योंकि इतना वीर्य आप रोज उत्पन्न कर लेंगे कि उसे फेंकना जरूरी हो जायेगा।
महावीर कहते हैं, शरीर पर दृष्टि रखनी जरूरी है। एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि शरीर में अतिरिक्त इकट्ठा न हो। अतिरिक्त इकट्ठा होगा तो वासना में खींचेगा। शरीर में उतना ही हो जितना जरूरी है ताकि जितना आत्मा को जगाने और रोशन करने के लिए काफी है उतना दीया भीतर जल जाये और बाहर की तरफ की वासना न उठे।
तो महावीर कहते हैं कि जो दुबला-पतला है, जिसका रक्त और मांस सूख गया है। इसका यह मतलब नहीं कि उसका रक्त और मांस बिलकुल सूख गया है । रक्त, मांस सूख गया है, मतलब : अतिरिक्त रक्त, मांस सूख गया है। जिसके पास व्यर्थ ईंधन नहीं है, जो उसे गलत मार्ग पर ले जाये। 'जो शुद्धव्रती है, जिसने निर्वाण पा लिया है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।'
इस आखिरी शब्द–निर्वाण को समझ लेना जरूरी है। निर्वाण बड़ा कीमती शब्द है। इस शब्द का मतलब होता है, दीये का बुझ जाना । जब किसी दीये को हम फूंक देते हैं और उसकी ज्योति बुझ जाती है, तो कहते हैं : दीया निर्वाण को उपलब्ध हो गया।
महावीर कहते हैं : जो निर्वाण को उपलब्ध हो गया, वह ब्राह्मण है। तो किस दीये की बात कर रहे हैं?
जब तक अहंकार है, तब तक हम जल रहे हैं व्यक्ति की तरह । जैसे ही अहंकार की ज्योति बुझ जाती है, हम व्यक्ति की तरह समाप्त हो जाते हैं; अहंकार खो जाता है। अब हम होते हैं; लेकिन व्यक्ति की तरह नहीं होते हैं; अहंकार की तरह नहीं होते, अस्मिता नहीं होती। हमारी कोई सीमा नहीं रह जाती, हमारी कोई दीवालें नहीं रह जातीं, और 'मैं' का कोई भाव नहीं रह जाता। ___ 'मैं-भाव' का बुझ जाना निर्वाण है। जिस क्षण मैं हूं, और मुझे पता नहीं चलता कि मैं हूं, मेरा होना शुद्ध हो गया । इस शुद्धतम अवस्था को महावीर कहते हैं, 'मैं ब्राह्मण कहता हूं
महावीर ने जितना आदर 'ब्राह्मण' शब्द को दिया है, उतना किसी और ने कभी भी नहीं दिया है। 'ब्राह्मण' शब्द की ऐसी पराकाष्ठा न तो उपनिषदों में उपलब्ध है और न वेदों में उपलब्ध है। लेकिन फिर भी ब्राह्मणों ने समझा कि महावीर ब्राह्मणों के दुश्मन हैं । समझने का कारण था, क्योंकि उन्होंने ब्राह्मण की जन्मजात बपौती छीन ली, स्वार्थ छीन लिया, उसका धंधा छीन लिया, उसका व्यवसाय छीन
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