________________
भिक्षु की यात्रा अंतर्यात्रा है है, भिक्षु चीजों से अपने को मुक्त कर रहा है ताकि अपने में प्रवेश कर सके । सम्राट की यात्रा बहिर्यात्रा है; भिक्षु की यात्रा अन्तर्यात्रा है। ___ "भिक्षु' शब्द परम आदरणीय है। भिक्षु का अर्थ है कि अब जिसके पास अपना कहने योग्य कुछ भी नहीं सिवाय स्वयं के होने के। जो किसी चीज का मालिक नहीं रहा है। जिसका कोई पजेशन नहीं । जिसका कोई परिग्रह नहीं । जो कहता है, मेरा कुछ भी नहीं है; सिर्फ मै हं, जिसके पास एक दाना भी अपना कहने को नहीं है। जिसका सब-कुछ संसार का है और जिसने एक भेद रेखा स्पष्ट अनुभव कर ली है कि मेरा मैं ही अकेला हो सकता हूं, कोई संपदा मेरी नहीं हो सकती; क्योंकि जब मैं नहीं था, जब संपदा थी, महल थे, जमीन थी, जायदाद थी, हीरे थे, मोती थे; जब मैं नहीं रहूंगा, तब भी वे होंगे; मैं व्यर्थ ही बीच में अपना परिग्रह स्थापित करके परेशान हूं। उससे हीरे-मोती परेशान नहीं होते, उससे मैं ही परेशान होता हूं।
जब आप मर जायेंगे तो आपका घर नहीं रोयेगा; बड़ा मजा है। लेकिन आपका घर जल जाये तो आप रोयेंगे। मालिक कौन है? आपका हीरा खो जाये, तो हीरा आपकी जरा भी चिंता नहीं करेगा। हीरा सोचगा ही नहीं कि आप कहां खो गये । आप जैसे बहुत लोग आये और खो गये। लेकिन आप बड़ी मुश्किल में पड़ जायेंगे । और आप सोचते थे कि आप मालिक हैं । मालिक मुश्किल में पड़ता है। __नहीं, जिन चीजों को हम सोच रहे हैं, हम उनके मालिक हैं, वे हमारी मालिक हो गयी हैं। मालकियत हमारा बिलकुल वहम है, असत्य है। इसलिए इस देश ने भिक्षु को सर्वोत्तम जीवन की आखिरी ऊंचाई का फूल कहा है, जहां एक व्यक्ति यह अनुभव कर लेता है कि परिग्रह का कोई उपाय नहीं है । वस्तूयें किसी की भी नहीं हो सकती हैं। सिर्फ एक ही घटना है जो मेरी हो सकती है; वह मेरी आत्मा
लेकिन हम बड़े अजीब लोग हैं । हम सब चीजों पर दावा करते हैं, सिर्फ उस एक पर दावा नहीं करते, जिस पर दावा हो सकता है। इसलिए अगर ठीक से समझें तो अर्थ यह हआ कि हम बहत चीजों के मालिक नहीं हो पाते. बहत चीजों के प्रति भिखारी हो जाते हैं। असल में तो हम भिखारी हैं, लेकिन हमको मालिक होने का खयाल है।
महावीर जिसको भिक्षुकहते हैं, वही मालिक है। लेकिन, वह हम सब अपने को मालिक कहते हैं, इसलिए महावीर ने उसे मालिक कहना उचित नहीं समझा-क्योंकि उससे भ्रांति होगी। हम सभी अपने को मालिक समझते हैं, तो हम सबको ठीक चोट देने के लिए महावीर और बुद्ध दोनों ने उस परम घटना को भिक्षु कहा । बुद्ध अपने को 'भिक्षु' कहते हैं, जिनके पास अपनी मालकियत है; और हम अपने को 'मालिक' कहते हैं, जो वस्तुओं के गुलाम हैं।
तो जिस दुनिया में गुलाम अपने को मालिक समझते हों, यह उचित ही है कि मालिक अपने को भिक्षु कहे; नहीं तो भाषा में बड़ी गड़बड़ हो जायेगी। ___ इसलिए हिंदुओं का जो शब्द है, स्वामी, वह जैनों और बौद्धों ने चुनना पसंद नहीं किया । वह शब्द बिलकुल सही है—एकदम सही है। 'स्वामी' का अर्थ है : 'मालिक', जो अपना सचमुच मालिक है। हिंदुओं ने अपने संन्यासी को स्वामी यही ठीक है। लेकिन बुद्ध और महावीर ने उलटा शब्द चुना, 'भिक्षु' । उनका व्यंग गहरा है । वे यह कह रहे हैं कि यहां तो सभी अपने को 'स्वामी' समझ रहे हैं, यहां तुम भी अपने को स्वामी कहोगे तो भाषा बड़ी गड़बड़ हो जायेगी। और जहां सभी पागल अपने को स्वस्थ समझते हों; वहां स्वस्थ आदमी को अपने को पागल कहना ही उचित है। __ कौन है भिक्षु? सच में जो मालिक हो गया। लेकिन सच की मालकियत सिर्फ अपने पर हो सकती है, और किसी पर भी नहीं हो सकती। और जब तक कोई व्यक्ति दूसरे पर मालकियत करने की कोशिश करता है, तब तक अपने जीवन का अपव्यय करता है। वह शक्ति व्यर्थ जा रही है। उसका कोई अर्थ नहीं होनेवाला है। वह कहीं भी पहुंचेगा नहीं। वह सिर्फ अपने को रिक्त कर रहा है, चुका रहा
411
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org