Book Title: Mahavira Vani Part 2
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 430
________________ महावीर वाणी भाग 2 नहीं है। जब आप किसी स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हैं, तो आपको स्त्री सुंदर दिखाई पड़ती है। मनसविद से पूछें, वह कहता है कुछ और। आप कहते हैं, स्त्री सुंदर है। इसलिए मैं प्रेम में पड़ गया; और मनसविद कहता है, आप प्रेम में पड़ गये, इसलिए यह स्त्री सुंदर दिखाई पड़ रही है । क्योंकि यह स्त्री और किसी को सुंदर दिखाई नहीं पड़ रही है। यह अगर सुंदर होती - आब्जेक्टिव्हली, तो सारा जगत इसके प्रेम में कभी का पड़ गया होता; आपको मौका भी नहीं मिलता । इतने दिन तक यह प्रतीक्षा करती रही, कोई प्रेम में नहीं पड़ा । आपकी यह राह देखती रही! उसका कारण है, क्योंकि जो प्रेम में पड़ जाए, उसी को यह सुंदर दिखाई पड़ेगी। सौंदर्य प्रेम का प्रोजेक्शन है। आप अपने प्रेम को आरोपित करते हैं किसी चेहरे पर, किसी शरीर पर। और ऐसा मत समझना कि यह स्त्री सदा सुंदर रहेगी। हो सकता है, कल ही यह असुंदर हो जाये। यह कल वही रहेगी, जो आज है। लेकिन तुम्हारा प्रेम अगर तिरोहित हो गया तो यह असुंदर हो जायेगी । हम सभी चीजें आरोपित कर रहे हैं। जहां आपको साधुता दिखाई पड़ती है, वह भी आपका आरोपण है। यह बड़े मजे की बात है, अगर मुसलमान साधु जैन के सामने खड़ा हो, तो जैन को वह साधु नहीं मालूम होता । जैन का साधु हिंदू को साधु नहीं मालूम पड़ता, हिंदू का साधु, बौद्ध को साधु नहीं मालूम पड़ता । बौद्ध भिक्षु, बौद्ध का साधु जैनियों को साधु नहीं मालूम होता। निश्चित ही, साधु वहां नहीं है। साधुता कुछ हमारी धारणा में है, जो हम आरोपित करते हैं । अब जैसे देखें - बौद्ध का साधु मांसाहार कर लेता है; शर्त एक ही है कि मरे हुए जानवर का मांस हो – अपने-आप मर गये जानवर का मांस हो । बात तर्कयुक्त मालूम पड़ती है। क्योंकि बुद्ध ने कहा, मारने में हिंसा है। अगर कोई किसी गाय को मारकर खाता है, तो हिंसा कर रहा है। लेकिन गाय अपने से मर गयी तब इसके मांस को खाने में क्या हिंसा है? बात साफ है। लेकिन बुद्ध का भिक्षु जब मांस खाता है तो जैन का मुनि तो सोच ही नहीं सकता कि यह आदमी... और साधु! इससे ज्यादा असाधु और क्या होगा; मांसाहार कर रहा है। बौद्ध भिक्षु कहता है, गाय मर गयी, और उसका मांस न खाओ तो इतने भोजन को तुम व्यर्थ ही नष्ट कर रहे हो। यह किसी के काम आ सकता था । इस भोजन को नष्ट करना हिंसा है। T बड़ा कठिन है । तो हमारी धारणा पर निर्भर है कि हमारी धारणा क्या है । अगर गांधीजी के आश्रम में जायें तो चाय पीना वर्जित है। सिर्फ राजगोपालाचार्य के लिए विशेष सुविधा गांधीजी करते थे। उनके लिए छूट थी, क्योंकि समधी थे; इसलिए छूट रखनी जरूरी भी थी। वे दिनभर चाय पीते थे। चाय पाप 1 लेकिन सारी दुनिया के बौद्ध भिक्षु चाय पीते हैं; ध्यान करने के पहले चाय पीते हैं, फिर ध्यान करते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, चाय सजग करती है, और सजगता ध्यान में ले जाने में सहयोगी है। बात में थोड़ी जान मालूम पड़ती है, क्योंकि चाय थोड़ा सजग तो करी ही है, शरीर को थोड़ा ताजा तो करती है। उसमें निकोटिन होता है। निकोटिन खून में दौड़कर थोड़ी गति बढ़ाता है। खून में थोड़ी गति आती है; आदमी थोड़ा ताजा हो जाता है। बौद्ध भिक्षु पहले उठकर चाय पीयेगा, फिर ध्यान में लगेगा – क्यों ? वह कहता है, सुस्ती के साथ ध्यान करना ठीक नहीं है, ताजगी के साथ करना ठीक है। तो चाय धर्म का हिस्सा है। और जापान में हर घर में चाय का कमरा अलग है— संपन्न घर में। और चाय के कमरे की वही प्रतिष्ठा है, जो मंदिर की होती है। क्योंकि जो जगाये, वही मंदिर है । बड़ा मुश्किल है। और जापानी घर में, कुलीन, सुसंपन्न घर में, सुबह चाय का वक्त, या सांझ चाय का वक्त प्रार्थना का समय है । और जिस ढंग से जापानी चाय पीते हैं, वह निश्चित ही प्रार्थनापूर्ण है। वे शांतिपूर्ण ढंग से चाय के कमरे में बैठते हैं। वहां कोई बातचीत नहीं करेगा, क्योंकि बातचीत व्याघात है । सब लोग मौन होकर भीतर आयेंगे। गृहिणी खास तरह के कपड़े पहने होगी, जो उसी कमरे में Jain Education Internation 416 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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