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महावीर-वाणी भाग : 2 खोजे वह सब गलत थे और मामला हल नहीं हो पाया। जब आप ही मौजूद हैं, जिन्होंने जगत को बनाया तो अब हल होने में कोई कठिनाई नहीं है।
उसने भौतिक-शास्त्र का एक उलझा हुआ सवाल ईश्वर से पूछा । उसने कहा कि प्रोटान और इलेक्ट्रान दोनों के मास में अठारह सौ गुना का फर्क है। प्रोटान का मास इलेक्ट्रान के मास से अठारह सौ गुना ज्यादा है। लेकिन दोनों का विद्युत चार्ज बराबर है; यह बड़ी हैरान करनेवाली बात है। ऐसा कैसे हो पाया? क्या कारण है? जरूर कोई कारण होगा।
ईश्वर ने अपनी टेबिल के ऊपर से कुछ कागजात उठाये और पावली को दिये और कहा कि यह रहा सारा सिद्धांत, इस भेद का सारा सिद्धांत, इस भेद का सारा रहस्य ! पावली गौर से पढ़ गया। फिर से दबारा लौटकर उसने पढा। तीसरी बार फिर नजर डाली और ईश्वर
के हाथ में देते हुए कहा, 'स्टिल रांग—अभी भी गलत है।' ___ कहानी कहती है कि ईश्वर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने कहा कि मैंने गलत ही तुझे पकड़ाया था। मैं जानना चाहता था कि ईश्वर को भी गलत कहने की क्षमता तुझ में है या नहीं।
ईश्वर की प्रतिष्ठा से और बड़ी कोई प्रतिष्ठा नहीं हो सकती; लेकिन सत्य के खोजी की आड़ में अगर ईश्वर भी आता हो तो उसे भी हटा देना आवश्यक है। महावीर सत्य के अनुसंधान में लगे थे, और बहुत सी बातें आड़ में थीं। वेद की प्रतिष्ठा थी। और वेद ईश्वर से कम प्रतिष्ठित नहीं था इस देश में । वेद ईश्वर का वचन था। कहना चाहिए ईश्वर से भी ज्यादा प्रतिष्ठित था। अगर ईश्वर भी वापस आ जाये और वेद के खिलाफ बोले, तो ईश्वर अस्वीकृत हो जायेगा, वेद स्वीकृत रहेगा। वेद परम वचन था। महावीर ने वेद को अस्वीकार कर दिया । क्योंकि उन्होंने कहा कि अनुभूति ही परम हो सकती है, शब्द परम नहीं हो सकते। और महावीर ने जो-जो प्रतिष्ठित परंपरा थी, सब पर आघात किये। ब्राह्मण प्रतिष्ठित था। महावीर ने ब्राह्मण की परी व्याख्या बदल दी। उस समय कोई सोच भी नह था कि शद्र भी अपने कर्म से ब्राह्मण हो सकता है, ब्राह्मण भी अपने कर्म से शद्र हो सकता है। लेकिन महावीर ने जन्म की पूरी व्यवस्था तोड़ दी और कहा कि व्यक्ति अपनी चेतना से ब्राह्मण होता है या शूद्र होता है, शरीर से नहीं। __स्वभावतः परंपरा को जब चोट पहुंचाई जाये, तो परंपरा प्रतिशोध लेती है। लेगी ही; क्योंकि न मालूम कितने स्वार्थ गिरेंगे, निहित स्वार्थों को चोट पहंचेगी–वे बदला भी लेंगे। उन्होंने बदला लिया भी। लेकिन उससे सत्य में कोई फर्क नहीं पड़ता। सत्य प्रतिशोध की अग्नि से गुजरकर और भी निखरकर स्वर्ण हो जाता है। __ इस सूत्र में प्रवेश करने के पहले एक बात प्राथमिक रूप से समझ लेनी चाहिए कि धर्म के लिए सबसे बड़ा उपद्रव सदा से एक रहा है, और वह उपद्रव है कि जो आंतरिक है उसे हम बाह्य से तौलते हैं। कारण भी साफ है, क्योंकि मनुष्य का बाह्य हमें दिखाई पड़ता है, अंतस तो दिखाई नहीं पड़ता। अंतस को तौलने का हमारे पास कोई उपाय भी नहीं है। और अंतस मूल्यवान है, बाह्य तो केवल आवरण है, वस्त्रों की भांति । ___ एक आदमी सफेद वस्त्र पहन सकता है, इससे शुभ्र हृदय का नहीं हो जाता । एक आदमी काले वस्र पहने हो, इससे ही काले हृदय का नहीं हो जाता । हृदय का वस्त्रों से क्या लेना-देना? वस्त्र हृदय को नहीं बदल सकते । यद्यपि उलटी बात हो सकती है कि हृदय अगर शुभ्र हो तो काला वस्त्र प्रीतिकर न लगे, और आदमी काला वस्त्र न पहनना चाहे । लेकिन, सिर्फ काला वस्त्र पहन लेने से किसी का हृदय काला नहीं हो जाता। यह हो सकता है कि हृदय काला हो और आदमी सफेद वस्त्र पहनकर उसे छिपा लेना चाहे । बहुत लोग यह करते हैं। हृदय जितना काला हो, उतना सफेद आवरण में, सफेद वस्त्रों में छिपा लेना जरूरी है। वस्त्र खादी के हों तो और भी अच्छा है। तो भीतर वह जो काला है, वह छिप जाता है।
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