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अलिप्तता है ब्राह्मणत्व
नहीं है, मगर हर आदमी अपने को अपवाद मान लेता है, और फिर उसी कोशिश में लग जाता है, जिसमें सिकंदर, नेपोलियन, चंगेज डूब जाते हैं, फिर उसी कोशिश में लग जाता है कि मैं अपने को सुरक्षित कर लूं, मुझ पर कोई खतरा न रहे।
और हम जिंदगी भर खतरे से बचने में जिंदगी को गंवा देते हैं; जिंदगी का रस ही नहीं ले पाते और न ही जिंदगी का उपयोग कर पाते हैं। महावीर इसलिए अलोलुपता को ब्राह्मणत्व का आधार बनाते हैं, क्योंकि जो आदमी अलोलुप है, वह जीवन का ठीक उपयोग कर पायेगा। जो लोलुप है, वह डरा हुआ, भयभीत, इंतजाम करने में ही लगा रहेगा। और जो यहीं इंतजाम करने में लगा है, उसका ब्रह्म से क्या संबंध स्थापित होगा! उसका परम से कोई संबंध स्थापित नहीं हो सकता। वह क्षद्र में ही व्यतीत हो जायेगा। ___ 'जो अलोलुप है, जो अनासक्त-जीवी है।'
हम भी जीते हैं, ब्राह्मण भी जीता है, लेकिन महावीर कहते हैं, ब्राह्मण जीता है अनासक्त; इसलिए जीता है कि जीवन है; इसलिए नहीं जीता कि जीवन से कल एक बड़ा मकान बनाना है, एक बड़ी जमीन खरीदनी है, एक बड़ा बगीचा लगाना है, खेती-बाडी करनी है, धन इकट्ठा करना है; कल कुछ करना है जीवन से, कोई वासना पूरी करनी है, ऐसी किसी आसक्ति से नहीं जीता । जीवन है; जब तक है, तब तक जीयेगा; जिस दिन श्वास छूट जायेगी, इतनी भी प्रार्थना नहीं करेगा कि एक श्वास और मुझे मिल जाये । मृत्यु, तो मृत्यु स्वीकार; जीवन, तो जीवन स्वीकार । जो भी घटित हो, वह उसे स्वीकार है। उसमें कोई अस्वीकार नहीं है।
अनासक्त का अर्थ है कि मैं जीवन पर अपनी कोई धारणा नहीं थोपता । जीवन जहां ले जाये, जीवन जो करे, मैं सहज भाव से उसे स्वीकार करता हूं। हमारी कठिनाई है, हम जीवन पर धारणा थोपते हैं । हम जीवन को स्वीकार नहीं करते। हम जीवन को चाहते हैं वासना के अनुकूल । उमर खय्याम ने कहा है कि अगर परमात्मा मुझे मौका दे, तो मैं सारी दुनिया को मिटाकर फिर से बनाऊं। तभी शायद मुझे तृप्ति हो सके।
लेकिन तब भी शायद ही तृप्ति हो सके। तब भी शायद ही तृप्ति हो सके, क्योंकि मन का नियम यह है कि जो भी आप बना पाते हैं उसकी अतृप्ति आगे बढ़ जाती है। एक मकान आप बनाते हैं; सोचते हैं तृप्त हो जाऊंगा; बनते ही सब समाप्त हो जाता है। नयी कल्पनाएं, नये स्वप्न जग जाते हैं। जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं, ऐसे मन में वासनाएं लगती हैं। पुराने गिर नहीं पाते कि नये लग जाते हैं। मन तो नयी अतृप्तियां खोजता चला जाता है।
ब्राह्मण वही है, जो अनासक्त-जीवी है; जो जीवन में ऐसे जी रहा है जैसे कल है ही नहीं, जैसे भविष्य होगा ही नहीं। हम लेकिन, गलत समझ लेते हैं। जीसस ने अपने शिष्यों को कहा कि कल नहीं है । बस, आज ही है। और दुनिया का समझो कि जैसे कल अंत होनेवाला है। इस भांति जीयो कि जैसे कल मृत्यु होनेवाली है, कल सब समाप्त हो जायेगा, महाप्रलय हो जायेगी।
बड़ा मजा है! आदमी का मन कैसी गलती करता है! शिष्यों ने समझा कि ऐसा मामला है, ऐसा खतरा आ रहा है कि जल्दी दुनिया का अंत हो जानेवाला है, तो बजाय आज शांति से जीने के, वे कल की चिंता में लग गये कि अंत हो जायेगा, तो क्या करें! और जीसस से वे बार-बार पूछते हैं, जब कल आ जाता है, कि अभी अंत नहीं हुआ, प्रलय कब होगी? जीसस कहते हैं, 'बहुत निकट है, दि लास्ट डे इज वेरी क्लोज ।' और दो हजार साल हो गये, लेकिन अभी भी ईसाई समाज में कभी न कभी कोई संप्रदाय खड़ा हो जाता है, जो कहता है, बस, 1975 आखिरी। फिर 1975 की तैयारी चलने लगती है कि आखिरी दिन आ रहा है, तो थोड़ा अच्छा काम कर लो। फिर 1975 आ जाता है, वह आखिरी दिन नहीं आता । फिर कोई दूसरा संप्रदाय पैदा होता है। ___ इन दो हजार सालों में ईसाइयों में हजार दफा ऐसी तारीखें तय हो चुकी हैं, जब कि अखिरी प्रलय होने वाली है। किस तरह हम जीसस को, महावीर और बुद्ध को गलत समझते हैं! जीसस का कुल प्रयोजन इतना है कि कल जैसे सब नष्ट हो जायेगा, इस बात को समझकर
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